SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 384
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -७६] न्यायमतोपसंहारः २५१ तत्रैकतानता ध्यानम् । ध्यानोत्कर्षानिर्वाताचलप्रदीपावस्थानमिव एकत्रैव चेतसोऽवस्थानं समाधिः। एतानि योगाङ्गानि मुमुक्षणां महेश्वरे परां भक्तिमाश्रित्याद्यन्ताभियोगेन सेवयितव्यानि। ततो अचिरेण कालेन भगवन्तमनुपमस्वभावं शिवमवितथं प्रत्यक्षं पश्यति । तं दृष्ट्वा निरतिशयं सायुज्यं निःश्रेयसं प्राप्नोतीति चेन्न । ___ तन्मते भक्तियोगक्रियायोगज्ञानयोगानां निर्विषयत्वेन केशोण्डुकवन्मिथ्यारूपत्वात् कुत इति चेत् तदाराध्यस्य महेश्वरस्य प्रागेव प्रमाणेरभावप्रतिपादनात् । तत्प्रसाधकप्रमाणानामप्याभासत्वप्रतिपादनाच्च । तस्साजिनेश्वरविषयभक्तियोगक्रियायोगाभ्यां स्वर्गप्राप्तिः। तद्विषयज्ञानयोगान्मोक्षप्राप्तिरित्युक्त तत् सर्व जाघटयते। जिनेश्वरस्य नानाप्रमाणैः सद्भावसमर्थनात् । तन्मते एव पदार्थानां याथात्म्यसंभवेन तत्त्वज्ञानसंभवाच । तच्च तत्र तत्र यथासंभवं प्रमाणतः समर्थ्यते। तस्मान्नैयायिकपक्षोऽपि मुमुक्षणां श्रद्धेयो न भवति किं तु उपेक्षणीय एवेति स्थितम्। बाधक विकारों से हटाना प्रत्याहार है। चित्त को आंशिक रूप में स्थिर करना धारणा है। चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा है। ध्यान के उत्कर्ष से वायुरहित स्थान में निश्चल दीपज्योति के समान चित्त को निश्चल बनाना समाधि है। इन आठ योगांगों का अनुष्ठान ईश्वर की परम भक्ति के साथ किया जाय तो शीघ्र ही भगवान शिव के तात्त्विक स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन होता है तथा उस से सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है। न्यायदर्शन के इन तीन योगों के स्वरूप विषय में तो हमें विशेष आपत्ति नही है। किन्तु ये योग जिस ईश्वर की भक्ति के लिए हैं उस का अस्तित्व हमें मान्य नही । जगत का निर्माता कोई ईश्वर नही है यह पहले स्पष्ट किया है। जिस का अस्तित्व ही नही उस की भक्ति करने से मुक्ति कैसे मिलेगी ? अतः प्रमाणों से सिद्ध हुए जिन सर्वज्ञ की भक्ति ही उचित है - उस से स्वर्ग प्राप्त होता है। तया उसी के ज्ञानयोग से मुक्ति मिलती है। इस के प्रतिकूल न्यायदर्शन का मत मुक्ति के लिए उपयोगी नही है। .. १ पदार्थरहितत्वेन । २ क्रियायोगादिभिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy