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________________ प्रस्तावना हो गया फिर भी प्रपंच अब तक बना हुआ है यह हर प्रत्यक्ष देखते हैं। प्रत्येक जीव के सुख, दुःख, जन्म, मरण अलग अलग हैं अतः उन सब को एक ही ब्रह्म के अंश बतलाना योग्य नही । सुखदुःखादि गुण चैतन्यमय जीव के ही हो सकते हैं, जड अन्तःकरण के नही; अतः ब्रह्म एक है और अनेक अन्तःकरणों में उस के प्रतिबिम्ब मात्र हैं यह कथन भी उचित नही । यदि जीव ब्रह्म से भिन्न न हो तो जीव संसारी है तथा उसे मुक्ति के लिए प्रयास करना चाहिए यह कथन व्यर्थ सिद्ध होगा। वैशेषिक तत्त्वव्यवस्था--इन सात विषयों के विस्तृत विचार के बाद लेखक ने अपनी शैली में कछ परिवर्तन किया है। अब वे मोक्षमार्ग की दृष्टि से एक एक दर्शन की तत्त्वव्यवस्था का विचार करते हैं । इस प्रकार वैशेषिक दर्शन की तत्त्वव्यवस्था का विचार प्रथम आता है (पृ.१९२-२३८)। वैशेषिक और नैयायिक आत्मा अनेक तो मानते हैं किन्तु सभी आत्मा सर्वगत मानते हैं। जैन दृष्टि से यह ठीक नही क्यों कि आत्मा यदि सर्वगत हो तो वह एक शरीर से दूसरे शरीर में कैसे जायगा-जन्ममरण का क्या अर्थ रहेगा? इसी प्रकार सर्वगत आत्मा को एक ही शरीर के सुखदु:ख का अनुभव क्यों होता है- अन्य शरीरों से उस का संबन्ध क्यों नही होता ? इन्हीं कारणों से जैन मत में मन, सामान्य अथवा समवाय को भी सर्वगत नही माना है । द्रव्यों से भिन्न सामान्य और समवाय नामक पदार्थों का अस्तित्व मानना भी जैन दृष्टि से व्यर्थ है । वैशेषिक मत में इन्द्रियों को पृथ्वी आदि भूतों से उत्पन्न माना है तथा इन्द्रियों और पदार्थों के संनिकर्ष (प्रत्यक्ष सम्पर्क ) के बिना प्रत्यक्ष ज्ञान सम्भव नही माना है - इन मतों की यथोचित आलोचना लेखक ने की है । अन्त में प्रत्येक कर्म का फल भोगे बिना मुक्ति नही होती इस मत का निराकरण किया है तथा ध्यानबल से कर्मक्षय का समर्थन किया है । न्यायदर्शन की तत्त्वव्यवस्था- न्यायदर्शन की तत्त्वव्यवस्था में प्रमाण, प्रभेय आदि सोलह पदार्थों की गणना में बहुत दोष हैं। वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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