SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२५ -६७] इन्द्रियविचारः यभिचारात् । तस्य रूपादीनां मध्ये शब्दस्यैवाभिव्यञ्जकत्वेऽपिनाभसत्वाभावात् । तथा वायवीयं स्पर्शनं रूपादीनां मध्ये स्पर्शस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् जलशैत्याभिव्यञ्जकव्यजनवायुवत् इत्यनुमानमप्यसत्। एलालवङ्गकर्पूरश्रीखण्डादिभिहेतोर्व्यभिचारात् । तेषां जलशैत्याभिव्यञ्जकत्वेऽपि वायचीयत्वाभावात् । कुतः तेषां पार्थिवत्वात् । पार्थिवं घ्राणं रूपादीनां मध्ये गन्धस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् कुंकुमगन्धाभिव्यञ्जकधृतवदित्यनुमानमप्यसमञ्जसम्। पाण्डुमृत्पिण्डशुष्कचर्मादिष्वभिषिक्तजलादेः तत्र गन्ध स्यैवाभिव्यञ्जकत्वेऽपि पार्थिवत्वाभावात् तेन हेतोयभिचारः अनुलिप्तमृगस्वेदादिगन्धाभिव्यञ्जकशरीरोष्मणा व्यभिचाराच्च । तथा आप्यं रसन रूपादीनां मध्ये रसस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् लालादिवदित्यनुमानमप्ययुक्तम्। भोज्यवस्तुषु सकलरसाभिव्यञ्जकलवणेन हेतोव्यभिचारात् । ननु लवणमाप्यम् अप्सु जातत्वात् करकादिवदिति लवणस्य आप्यत्वसिद्धः हेतोर्न व्यभिचार इति चेन्न । लवणस्य आप्यत्वसिद्धयर्थ प्रयुक्तस्य हेतोः शंखशुक्त्यादिभिर्व्यभिचारात् । तेषामप्सु जातत्वेऽपि आप्यत्वाभावात् । लवणमाप्यं न भवति मधुररसरहितत्वात् हरीतकीवत्, लवणरसोपेभेरी और कोण का संयोग भी सिर्फ शब्द को व्यक्त करता है किन्तु वह आकाशनिर्मित नही है । इसी प्रकार सिर्फ स्पर्श को अभिव्यक्त करने से स्पर्शनेन्द्रिय को वायुनिर्मित मानना गलत है । इलायची, लौंग, कपूर आदि से जल का शीतस्पश व्यक्त होता है किन्तु ये पदार्थ वायुनिर्मित नही हैं । ध्राण इन्द्रिय से सिर्फ गन्ध की अभिव्यक्ति होती है अतः यह इन्द्रिय पृथ्वीनिर्मित है. केशर के गन्ध को व्यक्त करनेवाला धी पार्थिव होता है, यह कथन भी गलत है । सफेद मिट्टी अथवा सखे चमडे पर पानी छिडकने से भी गन्ध व्यक्त होता है किन्तु पानी पृथ्वीनिर्मित नही है । इसी प्रकार शरीर की उष्णता से कस्तरी आदि का गन्ध व्यक्त होता है किन्तु उष्णता पार्थिव नही होती । रसनेन्द्रिय रस को अभिव्यक्त करता है अतः लार आदि के समान वह जलनिर्मित है यह कथन भी ठीक नही। भोजन के पदार्थों में नमक सब रसों को व्यक्त करता है किन्तु वह जलनिर्मित नही है । नमक पानी से मिलता है अतः ओला आदि के समान वह जलनिर्मित है यह कथन भी ठीक नही । शंख, सीप आदि भी पानी. से मिलते हैं किन्तु वे जल निर्मित नही होते । नमक जलनिर्मित नही है वि.त.१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy