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________________ २२२ विश्वतत्त्वप्रकाशः [६६शुभशरीरेन्द्रियान्तःकरणतदनुकूलप्रतिकूलपदार्थनिष्पादनप्रापणानुभावनप्रकारेण जीवे सुखदुःखमुत्पाद्य विपच्यमानत्वात् । तथा अदृष्टं पौद्गलिक जीवस्याभिमतदेशे गमनप्रतिबन्धकत्वात् पालिवत् । अयमपि हेतुरसिद्ध इति चेन्न । सकलदुःख परिक्षयेण परमानन्दपदप्राप्त्यर्थम् अभिमतसूर्यमण्डलभेदनादिगमनप्रतिबन्धकसद्भावात्। तथा अदृष्टं पौद्गलिकं ध्यानान्यत्वे सतीष्टपदार्था कर्षकत्वात् उखादिवदिति । अदृष्टस्य गुणत्वप्रतिषेधेन द्रव्यत्वं समर्थितम् । तस्माददृष्टम् आत्मविशेषगुणो न भवति असंस्कारजीवनहेतुप्रयत्नत्वे सति मानसप्रत्यक्षागोचरत्वात् व्यतिरेके सुखादिवदिति च। [.६६. पौद्गलकावविवरणम् । ] __अथ पौद्गलिकत्वं नाम किमुच्यते। पुद्गलैरारब्धत्वं पौद्गलिकत्वमित्युच्यते । के पुद्गला इति चेत् ‘स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः' (तत्वार्थसूत्र ५-२३) इत्युच्यते। तर्हि पार्थिवस्यैव पुद्गलत्वम् अपतेजो. अन्तःकरण की अनुकूलता या प्रतिकूलता द्वारा ही प्राप्त होता है। अदृष्ट जीर को इष्ट प्रदेश में सब दुःखों से रहित, परम आनन्द से युक्त सूर्यमण्डल आदि प्रदेशों में जानेसे रोकता है अतः दीवार के समान अदृष्ट भी पौद्गलिक है। अदृष्ट ध्यान से भिन्न है तथा इष्ट पदार्थों को आकर्षित करता है अतः मन्त्र आदि के समान अदृष्ट भी पौद्गलिक है। अदृष्ट आत्मा का विशेष गुण नही है क्यों कि वह सुख आदि गुणों के समान मानस प्रत्यक्ष से ज्ञात नही होता तथा वह संस्कार तथा जीवनार्थ प्रयत्न से भिन्न है। ६६. पौगलिकत्व का विवरण-इस सम्बध में प्रतिवादियों का प्रश्न है कि पौद्गलिक का तात्पर्य क्या है ? उत्तर है- जो पुद्गल से बनता हो वह पौद्गलिक है। पुद्गल वह है जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण ये गुण होते हैं । न्याय मत में सिर्फ पृथ्वी-परमाणुओं में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण इन चारों गुणों का अस्तित्व माना है-जल में गन्ध का, तेज में गन्ध व रस का तथा वायु में गन्ध, रस व रूप का अभाव माना १ स्वर्गादि । २ सेतुवत्। ३ षडिन्द्रियाणि षड्विषयाः षड्बुद्धयः सुखदुःखशरीराणि । ४ ध्यानं पौद्गलिकं नास्ति परंतु अभिमतगमनहेतु । ५ मन्त्र। ६ संस्कारजीवनहेतुप्रयत्नौ वर्जयित्वा मानसप्रत्यक्षागोचरत्वात् तयोः मानसप्रत्यक्षगोचरत्वेऽपि गुणत्वमस्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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