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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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चक्षुर्वत् । अथ अनित्यत्वमसिद्धमिति चेन्न । अनित्यं मनः ज्ञानकरणत्वात् दुःखत्वात्' इन्द्रियत्वात् चक्षुर्वदिति तत्सिद्धेः । अदृष्टं वा न मनोविशेषणम् आत्मविशेषगुणत्वात् प्रयत्नवत् सुखदुःखनिमित्तकारणत्वात् इन्द्रियविषयवत् । तं करणं न देहान्तरमेति ज्ञानकरणत्वात् दुःखत्वात् इन्द्रियत्वात् अनित्यत्वात् चक्षुर्वत् । अदृष्टं वा स्वयं देशान्तरं न गच्छति निष्क्रियत्वात् निष्क्रियद्रव्याश्रितत्वात् अद्रव्यत्वात् गुणत्वात् बुद्धिवत् । अथ अष्टस्य गमनाभावेऽपि सर्वत्र विद्यमानत्वात् तत्र तत्र फलजनकत्वमिति चेत् न । नादृष्टं स्वाश्रयव्याप्यवृत्ति विभुविशेषगुणत्वात् आत्मविशेषगुणत्वात् प्रयत्नवदिति बाधितत्वात् । ननु विभुविशेषगुणत्वेऽपि व्याप्यवृत्तित्वे को विरोध इति चेत् 'विभुविशेषगुणानामसमवायिकारणानुरोधादू" देशनियम' इति स्वागमविरोधः । वीतं करणं न जन्ममरणव्यवस्थाभाव नित्यत्वात् विशेषगुणरहितत्वात् कालवत्, अणुपरिमाणत्वात् परमाणुवत् । वीतं
विशेष गुण है तथा इन्द्रियविषय के समान सुखदुःख का निमित्तकारण है अतः वह मन का विशेष नही हो सकता । मन ज्ञान का साधन है, इन्द्रिय है, दुःखरूप है तथा अनित्य है अतः चक्षु आदि के समान वह भी दूसरे शरीर को प्राप्त नही हो सकता । अदृष्ट भी स्वयं दूसरे स्थान को नही जा सकता क्यों कि वह निष्क्रिय है, निष्क्रिय द्रव्य ( आत्मा ) पर आश्रित है, द्रव्य नही है, बुद्धि के समान गुण है । इस पर नैयायिक उत्तर देते हैं कि अदृट एक स्थान से दूसरे स्थान को नही जाता किन्तु वह सर्वत्र विद्यमान होता है अतः दूसरे स्थान में फल दे सकता है । किन्तु यह उत्तर सदोष है । अदृष्ट प्रयत्न के समान आत्मा का विशेष गुण हैं तथा व्यापक का विशेष गुण है अतः वह अपने आश्रय आत्मा ) को व्याप्त कर नही रहता । अदृष्ट की वृत्ति आत्मव्यापी नही होती इस विषय में नैयायिकों ने ही कहा है - व्यापक के विशेष गुण असमवायी कारण के अनुसार विशिष्ट स्थान में नियमित होते हैं ।' अः अर सर्वव्यापी नहीं हो सका । नैयायिकों के ही कथना
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१ मनः दुःखरूपम् । २ मनो न अदृष्टवत् । ३ निष्क्रियद्रव्यमात्मा । ४ गुणाः सर्वे समवायिकारणम् अतः व्याप्यवृत्ति न; व्याप्यवृत्ति तु समवायिकारणं यथा मृतपिण्डो घटस्य ।
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