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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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पदार्थों का ज्ञान किसी पुरुष को होता है । ज्ञान के सब आवरण नष्ट होने पर स्वभावत: सब पदार्थों का ज्ञान होता है। ज्ञान और वैराग्य का परम प्रकर्ष ही सर्वज्ञत्व है। पुरुष होना अथवा वक्ता होना सर्वज्ञत्व में बाधक नही है । आजकल इस प्रदेश में सर्वज्ञ नही है अतः कभी भी किसी प्रदेश में सर्वज्ञ नही होते यह कहना साहसोक्ति है - ऐसे तर्क से इतिहास की वे सभी बातें मिथ्या सिद्ध होंगी जो इस समय विद्यमान नही हैं । अतः सर्वज्ञ का अस्तित्व तथा उनके द्वारा उपदिष्ट आगम का प्रमाणत्व मान्य करना चाहिए।
ईश्वरवाद-न्यायदर्शन में सर्वज्ञ का अस्तित्व तो माना है किन्तु वे जगत के कर्ता ईश्वर को सर्वज्ञ मानते हैं, इस का विचार भी लेखक ने विस्तार से किया है (प. ४३-६८)। इस विषय में चार्वाकों के विचार से वे सहमत हैं। ईश्वर जगत्कर्ता है यह कहने का आधार है जगत को कार्य सिद्ध करना । कार्य वह होता है जो पहले विद्यमान न हो तथा बाद में उत्पन्न हो । किन्तु जगत अमुक समय में विद्यमान नही था यह कहने का कोई साधन नही है अत: जगत को कार्य कहना ही गलत है। जगत मूर्त है. रूपादि गुणों से सहित है, अवयवसहित है, बाह्य इन्द्रियों से ज्ञात होता है, अचेतन है, विशिष्ट आकार का है, ये सब बातें ठीक हैं किन्तु इन से जगत कार्य है यह सिद्ध नही होता-जगत को नित्य माननेपर भी ये सब बातें हो सकती हैं। जगत किसी ने निर्माण किया यह कल्पना ही ठीक से स्पष्ट नही हो सकती - निर्माणकार्य शरीररहित ईश्वर द्वारा नही हो सकता क्यों कि कार्य करने के लिए शरीर होना आवश्यक है; यदि ईश्वर को सशरीर मानें तो प्रश्न होता है कि ईश्वर के शरीर को किस ने निर्माण किया । ईश्वर या उस के शरीर को स्वयंभू मानते हैं तो प्रश्न होता है कि जगत को भी स्वयंभू मानने में क्या हानि है। मनुष्यों को शुभाशुभ कमों का फल देता है वह ईश्वर है यह मानने पर प्रश्न होता है कि यदि ईश्वर कर्मों के अनुसार ही फल देता है तो उस की ईश्वरता क्या है -कर्म ही शुभाशुभ फल देते हैं यह मानने में क्या हानि है। इस के
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