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विश्वतत्त्वप्रकाशः
कथं धर्माद्यनुष्ठाने प्रमातुः स्यात् प्रवर्तनम् । स्वगापवर्गसंप्राप्तेरनुष्ठातुरसंभवात् ॥
ननु
अदृष्टेन विशिष्ट यदन्तःकरणमेव तत् । प्राप्य देहं कृतं स्वेन जीवं भोजयतीति चेत् ॥ यः कर्ता पुण्यपापस्य तं जीवं नैव भोजयेत् । तज्जीवस्य विनष्टत्वात् उपाधिविगमादिह ।। अन्योत्पन्नप्रमातारं यदि भोजयते तदा । कृतनाशाकृताभ्यागमाख्यदोषः प्रसज्यते ॥ अन्तःकरणमेवैतत् कत्रदृष्टस्य देहतः।
प्राप्य देहान्तरं भोक्त तत्फलस्य तदेव चेत् ॥ न । आत्मकल्पनावैयर्थ्यप्रसंगात् । तथा हि। अन्तःकरणस्यैवादृष्टादिकर्तृत्वं तत्फलभोक्तृत्वं भवान्तरप्राप्तिश्च यदि संपद्यते तात्मा अपरः किमर्थ परिकल्प्यते। तेतान्तःकरणेनैव पर्याप्तत्वात् । किं च, शरीर में एक अनुष्ठाता ही नही है तो स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति के लिए धर्माचरण में प्रमाता कैसे प्रवृत्त होगा ? अदृष्ट से विशिष्ट अन्तःकरण ही देह प्राप्त कर जीव को अपने द्वारा किये कर्मों का फल अनुभव कराता है यह कथन भी ठीक नही । पुण्य, पाप को करनेवाला जीव तो उपाधि के स्थानान्तर से नष्ट होता है अतः उसे उस पुण्यपाप का फल मिलना संभव नही है । यदि नये उत्पन्न हुए प्रमाता को पुराने प्रमाता के कर्मों का फल मिलता है तो यह कृतनाश तथा अकृतागम ( किये का फल न मिलना तथा न किये का फल मिलना) दोष होगा । अन्तःकरण ही एक देह से दूसरे देह को प्राप्त कर अदृष्ट का कर्ता तथा भोक्ता होता है यह कथन भी ठीक नही क्यों कि ऐसा कहने पर आत्मा की कल्पना ही व्यर्थ होती है। यदि अन्तःकरण ही अदृष्ट का कर्ता, फल का भोक्ता तथा एक देह छोड कर दूसरे देह को प्राप्त करनेवाला है तो आत्मा का
१ यदि देहान्तरं प्रमाता न गच्छति तर्हि प्रमाता कथं धर्माद्यनुष्ठाने प्रवर्तते अपि तु न। २ स्वर्गादिप्राप्त्यर्थम् अनुतिष्ठति धर्ममाचरति एवं भूतस्यानुष्ठातुरसंभवात् प्रमाता देहान्तरं न व्रजति तर्हि किमर्थ धर्मः क्रियते इत्यभिप्रायः। ३ अन्तःकरणं कर्तृ सत् । ४ अन्तःकरणमेव ।
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