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________________ १८८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [५५ 6 " पूर्णबोधस्वरूपस्य प्रमातृत्वम् उपाध्यवष्टब्धप्रदेशमात्रस्य वा । प्रथमपक्षे लोके एक एव प्रमाता स्यात्, नान्यः प्रमाता प्रतीयेत । पूर्णबोधस्वरूपस्य एकत्वात् । न चैवं, मृगपशुपक्षिमनुष्यादीनां अनेकप्रमातृणामुपलम्भात् । किं च । स्वरूपस्य प्रमातृत्वे कर्तृत्वं भोक्तृत्वं बाध्यत्वं च प्रसज्यते । तथास्तीति चेन्न । अपसिद्धान्तप्रसंगात् । कथम् । 'साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च' इत्यकर्तृत्वनिरूपणात् । अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति इत्यभोक्तृत्वनिरूपणात् । ' नित्यं ज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इत्यबाध्यत्वनिरूपणाच्च । उपाध्यवष्टब्धप्रदेशमात्रस्य प्रमातृत्वे स च उपाधिः सर्वगतः स्यादसर्वगतो वा । न तावत् प्रथमः पक्षः उपाधेरुपाधीयमानस्यात्मनोऽपि सर्वगतत्वे ज्ञाताहं सुख्यहं दुःख्यहमित्येक एव जीवः सर्वलोके अहंप्रत्ययवेद्यत्वेन प्रतीयेत । न चैवं प्रतीयते । अपि तु शरीरमात्रे एव ज्ञाताहं सुख्यहं दुःख्यहम् इच्छाद्वेषप्रयत्नवानहमित्यहमहमिकया स्वानुभवप्रत्यक्षेण प्रतीयमानत्वादात्मनः सर्वगतत्वेऽपि उपाधिः शरीरावष्टब्धप्रदेशे एव नान्यत्रेत्यङ्गीकर्तव्यम् । तथा च शरीरस्यान्यत्र गमने तेन सह 6 युक्त नही है । प्रश्न होता है कि वे पूर्ण चैतन्य को प्रमाता मानते हैं अथवा उपाधि से आच्छादित प्रदेश को प्रमाता मानते हैं ? पूर्ण चतन्य स्वरूप को तो प्रमाता नही माना जा सकता क्यों कि पूर्ण चैतन्य एक है और प्रमाता बहुत हैं । दूसरे, प्रमाता कर्ता, भोक्ता, तथा बाध्य हैं जब कि पूर्ण चैतन्य को अकर्ता, अभोक्ता, अबाध्य माना है । जैसे कि कहा है - वह साक्षी, चेतन, केवल तथा निर्गुण है । ', ' वह दूसरा खाता नही है, देखता है । '; ' ब्रह्म नित्य, ज्ञान, आनन्द है ।' उपाधि से आच्छादित चैतन्य प्रदेश को प्रमाता मानें तो प्रश्न होता है कि उपाधि सर्वगत है या असर्वगत है ? यदि उपाधि सर्वगत है और आत्मा भी सर्वगत है तो प्रमाता भी सर्वगत एक ही होगा । किन्तु मैं सुखी हूं, दुःखी हूं आदि प्रमाता की प्रतीति अपने शरीर तक ही मर्यादित होती है अतः उपाधि को भी शरीर तक ही मर्यादित मानना चाहिए । उपाधि को शरीर तक मर्यादित मानने पर प्रश्न होता है कि जब शरीर एक १ ब्रह्मस्वरूपस्य कर्तृत्वादिकमस्तीति । २ आत्मनः गुणादिः उपाधिः तत्सर्वगतत्वात् ॥ ३ सुखदुःखादिरुपाधिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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