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________________ -५२] मायावादविचारः १७९ आकाशवदिति चेत् तत्र प्रमाता पक्षीक्रियते अन्यो वा । न तावदाद्यः प्रमातुरेकत्वस्य स्वानुभवप्रत्यक्षबाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । कुत इति चेत् एकानेकशरीरगतेन्द्रियजनितवर्तमानसुखदुःखप्रत्यक्षाभ्यां प्रमातृभेदस्य स्वानुभवप्रत्यक्षसिद्धत्वात् । किं च । प्रमातन् पक्षीकृत्य एकत्वं प्रसाध्यते चेन् मृगपशुपक्षिमनुष्यादीनां मातृपितृपुत्रपौत्रभ्रातृकलत्रादीनां विभागाभावेन एक एव सकललोकेषु संकायः स्यादिति अतिप्रसज्यते । अपसिद्धान्तापातश्च । कुतः। अन्तःकरणावच्छिन्नं चैतन्यं प्रमात इत्यन्तःकरणानामनन्तत्वेन प्रमातृणामप्यनन्तत्वनिरूपणात् । द्वितीयपक्षे प्रमातुरन्यस्यात्मनःप्रमाणगोचरत्वाभावादाश्रयासिद्धो हेत्वाभासः स्यात् । वादिनो विशेष्यासिद्धश्च । वेदान्तपक्षे आत्मनो द्रव्यत्वाभावात्। अथ आत्मा एक एव विभुत्वात् आकाशवदिति चेन्न। हेतोरसिद्धत्वात् । कथम् । अहं ज्ञानी अहं सुखी अहमिच्छाद्वेषप्रयत्नवान् इत्यहमहमिकया स्वानुभवप्रत्यक्षेण शरीरमात्रे एव स्वात्मनः प्रतिभासमानत्वात् । ततो बाह्येऽप्रतिभासमानत्वाच्च। प्रागुक्तानेकत्वप्रसाधकानुमानानामसर्वगतत्वप्रसाधकत्वाच्च । अनुमान भी उचित नही। यहां आत्मा एक है इस कथन में आत्मा का तात्पर्य प्रमाता हो यह संभव नही क्यों कि प्रत्येक शरीर के सुखदुःख का ज्ञाता जीव भिन्न है यह प्रत्यक्षसिद्ध है। सब प्रमाताओं को एक मानने से मृग, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि का भेद तथा माता, पिता, भाई आदि का भेद लुप्त होगा ( जो अनुचित है)। दूसरे, वेदान्त मत में अन्त:करण से अवच्छिन्न चैतन्य को प्रमाता माना है, अन्तःकरण अनन्त हैं अतः प्रमाता भी अनन्त हैं । इस लिये सब प्रमाताओं को एक कहना वेदान्त मत के ही विरुद्ध है। प्रमाता से भिन्न किसी आत्मा का अस्तित्व ही प्रमाण सिद्ध नही है अतः उसे एक सिद्ध करना व्यर्थ है। तीसरे, वेदान्त मत में आत्मा द्रव्य नही है अतः आत्मा स्पर्शरहित द्रव्य है यह उन का कथन भी स्वमतविरुद्ध है। आत्मा आकाश के समान व्यापक है अतः एक है यह अनुमान भी उचित नही । आत्मा व्यापक नही है क्यों कि मैं सुखी हूं, दुःखी हूं, ज्ञानी हूं आदि जितनी आत्मविषयक प्रतीति है वह सब अपने शरीर के भीतर ही होती है – बाहर नही। अतः आत्मा अपने शरीर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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