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________________ १७२ विश्वतत्वप्रकाशः [५०वदिति शानित्वसिद्धः। अथ आत्मनो शातृत्वाभावादसिद्धो हेतुरिति चेन्न। घटमहं जानामि पटमहं जानामीति शातृत्वस्य प्रतीतिसिद्धत्वात्। तथा आत्मा सुख दुखवान् भोक्तृत्वात् व्यतिरेके पटादिवदिति च। अथ आत्मनो भोक्तृत्वाभावादयमप्यसिद्धो हेतुरिति चेन्न । इष्टानिष्टविषयाणामनुभवेन स्वात्मनि वर्तमानसुखदुःखसाक्षात्कारात् सुख्यहं दुःख्यह. मित्यात्मनो भोक्तृत्वप्रतीतेः। तथा आत्मा इच्छाप्रयत्नवान् कर्तृत्वात् व्यतिरेके पटादिवदिति च । अथ आत्मनः कर्तृत्वाभावादयमप्यसिद्ध इति चेन्न । घटमहं चिकीर्षामि पटमहं करोमीति कर्तृत्वस्य प्रतीतिसिद्धत्वात्। तथा आत्मा संस्कारवान् स्मारकत्वात् व्यतिरेके पटादिवदिति च। अथ' आत्मनः स्मारकत्वाभावादसिद्धो हेतुरिति चेन्न । मम वित्तं तत्र निक्षिप्तं तस्मै दत्तमिति वा स्मृत्वा पुनर्ग्रहणेनात्मनः स्मारकत्वप्रतीतेः। तस्मादा. त्मनः ज्ञातृत्वभोक्तृत्वकर्तृत्वस्मारकत्वसभावात् तस्य बुद्धयादिविशेषगुणवत्वसिद्धिः। ननु अन्तःकरणस्यैव ज्ञातृत्वभोक्तृत्वकर्तृत्वस्मारकत्वसदभावात् तस्यैव ज्ञानादिगुणवत्त्वं नात्मन इति चेन्न। अन्तःकरणस्य तरसंभवात्। तथा हि । अन्तःकरणं न ज्ञात जडत्वात् कार्यत्वात् चक्षुरा स्वयं गुणरहित हैं, अवयवी की क्रिया से भिन्न तथा उपादान ( द्रव्य ) पर आश्रित हैं - ये सब विशेषताएं रूप आदि गुणों में ही होती हैं। आत्मा निर्गुण है यह सिद्ध करने के लिए 'वह साक्षी, चेतन, केवल तथा निर्गग है' यह उपनिषद्वचन उद्धत करना भी व्यर्थ है। मैं घट को जानता हूं, पटको जानता हूं - इस प्रतीति से ही स्पष्ट है कि आत्मा ज्ञाता है -- ज्ञान गुण से युक्त है । इसी प्रकार मैं सुखी हूं, दुःखी हूं आदि प्रतीति से आत्नाका सुखदुःख से युक्त -- भोक्ता होना स्पष्ट होता है । तथा मैं घट बनाता हूं, पट बनाता हूं आदि प्रतीति से आत्मा का इच्छा और प्रयत्न से युक्त – कर्ता होना भी स्पष्ट है । आत्मा संस्कार से युक्त है क्यों कि मैने वहां धन रखा, उसे दिया इस प्रकार स्मरण तथा उसके द्वारा धन वापस लेना यह आत्मा को ही संभव है । तात्पर्य - ज्ञान, भोक्तृत्व, कर्तृत्व, स्मरण आ दि से आत्मा का विशेष गुणों से यक्त होना स्पष्ट है। १ यः ज्ञानादिगुणवान् न भवति स ज्ञाता न भवति यथा पटः।२ यः सुखादिवान् नातेस भोक्ता न भवति यथा पटः । ३ यः इच्छाप्रयत्नवान् न भवति स कर्ता न भाते या पटः । ४ यः संस्कारवान् न भवति स स्मारको न भवति यथा पटः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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