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________________ -४४] मायावादयविचारः १४५ साक्षिणः शुक्तौ रजतप्रतिभासे प्रमातॄणां तत्प्रतिभासाभावेऽपि भ्रान्ति रिति विप्रतिषिद्धमेव । तस्मात् शुक्तिरजतादेर निर्वचनीयत्वपक्षेोऽपि न जाघटीति । सति चैवं प्रपञ्चोऽपि न चाविद्याविजृम्भितः । नित्यानुभववेद्यत्वात् परब्रह्मस्वरूपवत् ॥ [ ४४. प्रपञ्चसत्यत्वसमर्थनम् । ] ननु प्रपञ्चस्य प्रमातृवेद्यत्वेन नित्यानुभववेद्यत्वाभावादसिद्ध हेत्वाभास इति चेन्न । तन्मते' प्रमातृप्रत्यक्षादिना ? अर्थप्रकाशाभावात् । तत् कथमिति चेत् करणवृत्तिरूपज्ञानेन अर्थावारक मज्ञानमपसार्यते तद्पसारणे नित्यानुभवादेवार्थप्रकाश इति मायावादवेदान्ते प्रतिपादितत्वात् । तस्य भासा सर्वमिदं विभातीत्यादि श्रुतेश्च । अथ परब्रह्मस्वरूपस्य स्वसंवेद्यत्वेन नित्यानुभववेद्यत्वाभावात् साधनविकलो दृष्टान्त' इति चेन्न । तस्य तथैव नित्यानुभववेद्यत्व संभवात् । तत् कथम् । परब्रह्मस्वरूप को भिन्न मानना आवश्यक है । तात्पर्य - साक्षीद्वारा जाने जाने से प्रमाता को भ्रम होना सम्भव नही, प्रमाता द्वारा चांदी वेदा नहीं अतः उसे उसकी प्रतीति या बाध नही हो सकते । अतः वेदान्त मत का अनिर्वचनीवाद उचित नही है । है क्यों कि परब्रह्म के समान होता है । ' " तदनुसार प्रपंच भी अविद्यानिर्मित नही प्रपंच का ज्ञान भी नित्य अनुभव से ४४. प्रपञ्च सत्य है— वेदान्तदर्शन का मन्तव्य है कि प्रमाता के प्रत्यक्ष आदि द्वारा अर्थ का बान नही होता । प्रमाता के करण वृत्तिरूप (इन्द्रिय आदि से प्राप्त ) ज्ञान से अर्थ का आच्छादक अज्ञान दूर होता है तथा उस के बाद नित्य अनुभव से अर्थ का ज्ञान होता है इस आशय का उपनिषद् वचन भी है उस (ब्रह्म) के प्रकाश से यह सब प्रकाशित होता है'। यदि इस मन्तव्य के अनुसार प्रपंच भी नित्य अनुभव से ही ज्ञात होता है तो उसे भी परब्रह्म के समान मानना चाहिए - अविद्या से निर्मित नही मानना चाहिए । प्रपंच नित्य अनुभव १ मायावादिमते । २ इन्द्रियवृत्तिरूपप्रत्यक्षादिना । ३ निवार्यते । . ज्ञानेन । ५ परब्रह्मस्वरूपवत् इति दृष्टान्तः । ६ प्रतिपादितप्रकारेण । वि.त. १० Jain Education International For Private & Personal Use Only ― ४ ब्रह्मणः www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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