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________________ १४२ विश्वतत्त्वप्रकाशः [४३ - ननु ज्ञानं स्वप्रकाशाद् विनाश्यवत्' प्रकाशत्वात् प्रदीपवदिति । अत्र ज्ञानं विनाश्यवदित्युक्ते स्वोत्पत्त्या विनाश्यप्रागभाववत्त्वात् सिद्ध. साध्यताप्रसंगः, तद्व्यवच्छेदार्थ स्वप्रकाशाद् विनाश्यवदित्युक्तम् । प्रदीपे यथा स्योत्पत्त्या प्रागभावो विनाश्यते स्वप्रकाशादन्धकारो विनाश्यते तद्वदत्रापि ज्ञानोत्पत्या ज्ञानप्रागभावो विनाश्यते ज्ञानप्रकाशात् प्रागभावादन्या अविद्या विनाश्यते इति अविद्यायाः अभावादन्यप्रसिद्धिरिति चेन्न। हेतोःविचारासहत्वात्। तथा हि। प्रकाशत्वं नाम अनुभवत्वं प्रकाशत्वमात्रं वा । प्रथमपक्षे अनुभवस्य हेतोः सपक्षे ऽभावेन पक्ष एव वर्तमानत्वात् अनध्यवसितत्वमेव स्यात्। साधनविकलो दृष्टान्तश्च । द्वितीयपक्षे पक्षीकृते शाने उद्योतत्वाभावात् स्वरूपासिद्धो हेत्वाभासः स्यात् । तृतीयपक्षो नोपपनीपद्यत एवाजडजडयोरनुभवोद्योतत्वयोः प्रकाशत्वस्यासामान्यसंभवात् । किं च । ज्ञान धर्मि तत्र नित्यानुभव: पक्षीक्रियते करणवृत्तिा । प्रथमपक्षे स्वप्रकाशाद विनाश्यवदिति प्रसाध्यत्वे मायावादिनो अपसिद्धान्त एव स्यात् । तन्मते नित्यानुभवनिवाविद्याभावेन' स्वप्रकाशाद् विनाश्याभावाङ्गीकारात्। द्वितीय ज्ञान अपने प्रकाश से किसी वस्तु का नाश करता है वही अज्ञान है - जैसे दीपक के प्रकाश से अन्धःकार का नाश होता है वैसे ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का नाश होता है; ज्ञान की उत्पत्ति से ज्ञान के अभाव का तथा ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का नाश होता है अत: अज्ञान और अभाव भिन्न हैं - यह कथन भी ठीक नही। दीपक के प्रकाश और ज्ञान के प्रकाश में मौलिक अन्तर है । दीपक का प्रकाश तो जड है, ज्ञान का प्रकाश चेतन अनुभवरूप है अतः इन दोनों में उपमा द्वारा विनाश्य वस्तु का स्वरूप सिद्ध नही होता। इस प्रश्न का प्रकारान्तर से भी विचार करते हैं। यहां ज्ञान से अज्ञान का विनाश होता है इस विधान में ज्ञान का तात्पर्य नित्य अनुभव से है या साधनरूप ज्ञान से है ? प्रथमपक्ष सम्भव नही क्यों कि मायावादियों के मत से नित्य १ विनाशितुं योग्यं विनाश्यं विनाश्यमस्यास्तीति विनाश्यवत् । २ अविद्या अभावरूपा न भवति किंतु भावरूपा इत्यर्थः इति चेन्न। ३ प्रकाशत्वस्य हेतोः। ४ ज्ञानं स्वप्रकाशाद् विनाश्यवत् अनुभवत्वात् प्रदीपवत्। ५ दीपे। ६ सामान्यासंभवात् असामान्यमात्रम् । ७ नित्यानुभव: ज्ञानं करणवृत्तिर्वा ज्ञानम्। ८ नित्याया: आविद्यायाः नित्यानुभवेन निवर्तितुं न शक्यते नित्यत्वात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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