SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ३८] प्रामाण्यविचारः ११३ मित्युत्पत्तौ अर्थप्राकटयस्य करणत्वेऽप्यस्वसंवेद्यत्वाभावात्। तस्मात् करण ज्ञानं स्वसंवेद्यम् अव्यवधानेनार्थप्राकटयजनकत्वात् अव्यवधानेन ज्ञप्तिकरणत्वात् परनिरपेक्षतया आत्मप्रकाशत्वात् व्यतिरेके चक्षुरादिवदिति भाई प्रति ज्ञानस्य स्वसंवेदनत्वसिद्धिः। अन्येषां तत्स्वसंवेदनज्ञाने विप्रतिपत्यभावात् तान् प्रति न किंचिदुच्यते। एवं ज्ञानस्य स्वसंवेद्यत्वात् स्वरूपे अप्रामाण्याभाव एव । तत्र प्रामाण्योत्पत्तिपरिच्छित्ती अपि स्वत एवेति स्थितम् । तदुक्तं समन्तभद्रस्वामिभिः भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिह्नवः । बहिःप्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते ॥ इति । (आप्तमीमांसा का. ८३ ) ज्ञान करण है - जानने का साधन है - अतः चक्षु आदि के समान वह भी अपने आप को नही जान सकता – यह मीमांसकों का आक्षेप है । किन्तु यह अयोग्य है । किसी पदार्थ का स्पष्ट ज्ञान होता है और फिर इस ज्ञान का अनुमान में उपयोग किया जाता है उस समय यह ज्ञान करण तो होता है - अनुमान का साधन होता है - किन्तु स्वसंवेद्य भी होता है - यदि उस का वक्ता को संवेदन न हो तो अनुमान में उस का प्रयोग सम्भव नही होगा। अतः करण होने और स्वसंवेद्य होने में विरोध नही है। ज्ञान करण होने पर भी उसे जानने के लिये किसी दूसरे सहायक की जरूरत नही होती अतः वह स्वसंवेद्य है। इस प्रकार ज्ञान अपने स्वरूप के विषय में हो तो कभी अप्रमाण नही होता। तथा स्वरूप-विषयक ज्ञान का प्रामाण्य भी स्वतः ही ज्ञात होता है । इसी लिए समन्तभद्र स्वामीने कहा है - 'भावप्रमेय ( स्वरूप के विषय ) की अपेक्षा से प्रमाणभास का अस्तित्व नही होता। बाह्य प्रमेय की अपेक्षा से प्रमाण तथा प्रमाणाभास दोनों का अस्तित्व मान्य है।' १ यत् स्वसंवेद्यं न तत् अव्यवधानेनार्थप्राकटयजनकं न यथा चक्षुरादि । २ बौद्धादीनाम् । वि.त,८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy