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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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क्येषु प्रामाण्याङ्गीकारात् । अथ ऋज्वभिप्रायतत्वज्ञानादिगुणैर्दुष्टाभिप्रायमिथ्याशानादिदोषनिवृत्तिः तन्निवृत्तौ प्रामाण्यं स्वत एव भवतीति चेन्न । प्रामाण्यस्यैव स्वतस्त्वासंभवात् । कुतः ऋज्वभिप्रायतत्त्वज्ञानादयो गुणाः दुष्टाभिप्रायमिथ्याज्ञानादिदोषान् तिरस्कृत्य स्वयं स्थित्वा प्रामाण्योत्पादने व्याप्रियन्ते, यथा प्रकाशः अन्धकारं तिरस्कृत्य स्वयं स्थित्वा रूपज्ञानोत्पादने व्याप्रियते। तस्माद् वक्तुर्दुष्टाभिप्रायमिथ्याज्ञानादिदोषैरागमे अप्रामाण्योत्पत्तिः। ऋज्वभिप्रायतत्त्वज्ञानादिगुणैः प्रामाण्योत्पत्ति'रुभयैश्चर संविन्मात्रोत्पत्ति रित्यङ्गीकर्तव्यम् । अनुमानेऽपि पक्षधर्मत्वादिगुणसद्भावे प्रामाण्यमुत्पद्यते। असिद्धत्वादिदोषसद्भावे अप्रामाण्योत्पत्तिरुभयत्र ज्ञानमात्रोत्पत्तिरित्यङ्गीकर्तव्यम् । अथ रूपादयश्चतुर्विशतिगुणाः इत्युक्तत्वात् पक्षधर्मत्वादीनां कथं गुणव्यपदेश इति चेन्न। दोष प्रतिपक्षाणां गुणव्यवहारसद्भावेन असिद्धत्वादिदोषप्रतिपक्षत्वेन पक्षधर्मत्वादीनां गुणव्यपदेशोपपत्तेः। तथा च अनुमानेऽपि पक्षधर्मत्वादयो गुणा असिद्धत्वादिदोषान् तिरस्कृत्य स्वयं स्थित्वा प्रमा जनयन्त्येवेति प्रामाण्यस्य गुणकि किसी वचन की प्रमाणता स्वयंसिद्ध नही होती। सरल आशय तथा यथार्थ ज्ञान से युक्त पुरुष के ही वचन प्रमाण होते हैं। गुणों से दोष दूर होते हैं किन्त वचन स्वतः प्रमाण होते हैं यह कथन उचित नही। प्रकाश अन्धकार को दूर करता है, साथ ही रूप के ज्ञान में सहायक होता है। उसी प्रकार गुण दोषों को दूर करते हैं, साथ ही प्रामाण्य भी उत्पन्न करते हैं। अतः वक्ता के दोष से वचन अप्रमाण होता है, वक्ता के गुण से वचन प्रमाण होता है, तथा दोनों अवस्थाओं में ज्ञान उत्पन्न करता है यह मानना चाहिये । इसी प्रकार अनुमान में पक्षधर्मता आदि गुण हों तो वह प्रमाण होता है, असिद्ध आदि दोष हों तो अप्रमाण होता है तथा दोनों अवस्थाओं में ज्ञान उत्पन्न करता है । यहां पक्षधर्मता आदि को जो गुण कहा है वह दोष के विरुद्धार्थक शब्द के रूप में कहा है अतः रूपादि चौवीस गुणों में इन के अन्तर्भाव का प्रश्न नही उठता। तात्पर्य यह है कि वचन या अनुमान में प्रामाण्य की उत्पत्ति यथार्थ वक्ता अथवा पक्षधर्मता आदि गुणों से ही
१ इति सति प्रमाणस्योत्पत्तिः परत एव । २ दोषगुणैः । ३ ज्ञानमात्रोत्पत्तिः । ४ गुणदोषसद्भावे।
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