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________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः चेन्न । अश्वत्थामा वेदार्थज्ञः त्रिलोचनत्वात् प्रसिद्धत्रिलोचनवत् रुद्रावतारत्वात् समन्तरुद्रावतारवदिति तस्य वेदार्थपरिज्ञानसिद्धेः । अथ तद् वाक्यार्थपरिशानस्य तत्फलकथनमर्थवाद' इति चेत् तर्हि अश्वमेध. यागस्यापि तत्कथनमर्थवाद एवास्तु विशेषाभावात् । द्वयोरप्यर्थवादत्वेन बाधितविषयत्वं सिद्धम् । [३५. वेदानां हिंसाहेतुत्वम् ।] तथा न वेदाःप्रमाणं ब्राह्मणादिवधविधायकत्वात् तुरुष्कशास्त्रवत् । अथ वेदानां ब्राह्मणादिवधविधायकत्वाभावादसिद्धो हेत्वाभास इति चेत्र । 'ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत क्षत्रायं राजन्यं मरुद्भ्यो वैश्यं तपसे शुद्धं तमसे तस्करम् ' इत्यादिना ब्राह्मणादिवधविधानात् । नन्वत्र ब्रह्मणो यागाय ब्राह्मणमालमेत इति कोऽर्थः ब्राह्मणं स्पृशेदित्यर्थ इति चेत् तर्हि 'श्वेतमजमालमेत भूतिकामः' इत्यत्रापि भूतिकामः श्वेतमजं स्पृशेदित्यर्थ एव स्यात् । अत्र हननााङ्गीकारे तत्रापि तथा स्याद् विशेषाभावात् । अक्षरशः सत्य नही है। किन्तु ऐसा मानने पर यज्ञ काने का फल भी अक्षरशः सत्य है यह कैसे निश्चय होगा ? अतः इस पूरे कथन में परस्परविरोध दूर नही किया जा सकता। ३५. वेदों में हिंसा का विधान-वेद इस लिये भी अप्रमाण हैं कि उन में तुरुष्कों के समान ब्राह्मण आदि के वध करने का विधान है – कहा है - ' ब्रह्मा के लिये ब्राह्मणका वध करे, क्षत्र के लिये क्षत्रिय का, मरुतों के लिये वैश्य का, तप के लिये शूद्र का तथा तम के लिये चोर का वध करे।' इस मन्त्र में ब्राह्मण के वध का तात्पर्य ब्राह्मण को स्पर्श करना है ऐसा कहा जाता है किन्तु यह स्पष्ट ही गलत है। यदि वध का अर्थ स्पर्श करना हो तो ऐश्वर्य की इच्छा हो तो सफेद बकरे का बलि दे' यहां पर भी बकरे को स्पर्श करने से विधि क्यों नही पूरा होता! १ स्तुतिमात्रमेव न सत्यम्। २ वेदवाक्यार्थपरिज्ञानस्य अश्वमेधयागस्य च द्वयोः । ३ छेदनं कुर्यात् । ४ ब्रह्मनिमित्तम् । ५ संपदार्थम् । mmmmm rom Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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