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________________ प्रस्तावना ग्रन्थकार तथा ग्रन्थ १. लेखक का परिचय " श्रीमूलसंघसेनगणद वादि गिरिवरदंडमप्प __ भावसेनत्रैविधचक्रवर्तिय निषि धिः ।।" आन्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में अमरापुरम् ग्राम के निकट एक समाधिलेख में उपर्युक्त वाक्य अंकित है । इस की सूचना पुरातत्त्वविभाग को सन १९१७ में मिली थी। किन्तु अन्य विवरण के अभाव से इस में उल्लिखित आचार्य भावसेन का नाम उपेक्षित ही रहा । सन १९५४ में जयपुर के वीर पुस्तक भंडार ने भावसेनकृत कातन्त्ररूपमाला यह ग्रन्थ प्रकाशित किया। किन्तु इस में ग्रन्थ का सिर्फ मल पाठ है, प्रस्तावना अथवा ग्रन्थ या ग्रन्थकार के बारे में कोई विवरण नही दिया है। ___अतः प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन के समय भावसेन के विषय में जो जानकारी हमें प्राप्त हुई उसे यहां कुछ विस्तार से प्रस्तुत करते हैं । उपर्युक्त लेख के अनुसार भावसेन मलसंघ-सेनगण के आचार्य थे । सेनगण की एक पहावली में उन का उल्लेख मिलता है, यथापरमशब्दब्रह्मस्वरूप त्रिविद्याधिपपरवादिपर्वतवज्रदंडश्रीभावसेनभट्टारकाणाम् ।। ( जैन सिद्धान्त भास्कर वर्ष १ पृ. ३८ )२ इस के वादिपर्वतचर तथा शब्दब्रह्मस्वरूप इन विशेषणों से स्पष्ट है कि यह प्रस्तुत लेखक का ही वर्णन है। दुर्भाग्य से इस पट्टावली में आचार्यों का क्रम अव्यवस्थित है। इस में भावसेन के पहले महावीर maniraamanara.....mary १) इस लेख का चित्र प्राचीन लिपिविद्कार्यालय, उटकमंड से प्राप्त हुआ है। लेख का वाचन इसी कार्यालय के सहायक लिपिविद् श्री. रित्ती के सहयोग से प्राप्त हुआ है। २) सेनगण की एक शाखा कारंजा नगर में १५ वीं सदी में स्थापित हुई थी। वहीं के भट्टारक छत्रसेन के समय १७ वीं सदी के अन्त में यह पट्टावली लिखी गई थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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