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________________ -२९] वेदप्रामाण्यनिषेधः श्रवणात् । किं च इदानीमपि केचन कवयः स्वनाममुद्रां ग्रन्थेषु न विरचयन्ति एतावता तेषामपौरुषेयत्वं स्यात्।। [२९. वेदकर्तृसूचकानि वैदिकवाक्यानि ।] ____ अथापौरुषेयो वेदः कर्तुरुपलम्भकप्रमाणरहितत्वात् आकाशवदित्यपौरुषेयत्वसिद्धिरिति चेन्न । हेतोरसिद्धत्वात् । कर्तुरुपलम्भकप्रमाणस्यागमस्य सद्भावात् । तथा हि । 'प्रजापतिर्वा इदमेक आसीन् नाहरासीन् न रात्रिरासीत् स तपोऽतप्यत तस्मात् तपस्तेपानाच्चतुरो वेदा अजायन्त' इत्यादीनां बहुलमुपलम्भात् ! अथ आगमवाक्यानां कार्यार्थ प्रामाण्यात् सिद्धार्थप्रतिपादने प्रामाण्याभाव इति चेन्न । तेषां सिद्धार्थेऽपि प्रामाण्य. सद्भावात् । आगमः सिद्धार्थेऽपि प्रमाणम् अव्यभिचारप्रमाणत्वात् प्रत्यक्षरहित नही हो जाता – इस समय भी कुछ कवि अपना नाम लिखे बिना ग्रन्थ-रचना करते हैं किन्तु इतने से उनके ग्रन्थ अपौरुषेय नही हो सकते। २९. वेदकर्ता के सूचक वैदिक वाक्य-आकाश के कर्ता का किसी प्रमाण से ज्ञान नही होता उसी प्रकार वेद के कर्ता का भी किसी प्रमाण से ज्ञान नही होता अतः वेद का कोई कर्ता नही है यह कथन भी ठीक नही। वेद के कर्ता के विषय में वैदिक ग्रन्थों के ही आगमप्रमाण मिलते हैं - जैसे कि कहा है, ' उस समय दिन नही था, रात. भी नही थी, सिर्फ एक प्रजापति था, उसने तप किया, उस के तप करने से चार वेद उत्पन्न हुए।' इस पर मीमांसकों का उत्तर है कि आगम के कार्यविषयक वाक्य तो प्रमाण हैं -- सिद्ध अर्थों के विषय के वाक्य प्रमाण नही हैं। किन्तु आगम में ऐसा भेद करना उचित नहीं। जैसे प्रत्यक्ष प्रमाण कार्य और सिद्ध दोनों अर्थों में प्रमाण होता है वैसे समी प्रमाण होते हैं अतः आगम को मी कार्य और सिद्ध दोनों विषयों में प्रमाण मानना चाहिए। इस पर मीमांसक आक्षेप करते - १ अग्निष्टोमात् स्वर्गो भवति इत्यादि कार्यार्थप्रामाण्यं । २ सर्वज्ञो बभूवेत्यादि सिद्धार्थः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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