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________________ -२५] ईश्वरनिरासः वृत्तित्वाभावात् साध्यविकलो दृष्टान्तश्च । कुतः जीवनहेतुप्रयत्नोच्छ्वासादीनां धनधान्यादिहानिवृद्धिगृहदाहशरीरव्यापादनादीनामदृष्टव्यापार' कार्याणां वहूनां दर्शनात्। तस्माद वीतः कालः२ प्राणिभागसहितः भोगानुकूलादृष्टसंपन्नात्मसहित्वात् संप्रतिपन्नकालवदिति सदा प्राणिनां भोगो भोग्यवर्गश्च प्रवर्तते। ___ अथ गं त्वं गोव्यक्तिषु कदाचिन्न वर्तते जातित्वात् अश्वत्ववदिति' कदाचित् सकल कार्याभावःप्रसाध्यते। तत्रापि गोत्वं गोव्यतिषु कदाचिन्न वर्तत इति कोऽर्थः-स्वव्यक्तीविहायान्यव्यक्तिषु कदाचिद् वर्तत इत्यभिप्रायः, निराश्रयत्वेन तिष्ठतीति वा। प्रथमपक्षे जातिसांकर्य प्रसज्यते । गोत्वं गोव्यक्तीविहायान्यव्यक्तिषु वर्तत इत्युक्ते अपसिद्धान्तापातश्च । दृष्टान्तोऽपि साध्यविकलः स्यात्। कुतः। अश्वत्वस्य कदाचिदपि स्वव्यक्तीविहायान्यत्र प्रवर्तनाभावात् । गोव्यक्तिष्वश्वत्वस्य सर्वदा अप्रवर्तइस अनुमान में दो दोष हैं। एक तो यह कि सभी आत्माओं के अदृट - जो काम्य, निषिद्ध आदि कमों के कारण उपार्जित किये जाते हैं - अपने फल देने के समय तक निरुद्ध होते ही हैं, फिर उनके निरुद्ध होने का प्रलयकाल जैसा अलग समय मानने की क्या जरूरत है ? दूसरा दोष इस अनुमान के उदाहरण में है - सोए हुए मनुष्य का अदृष्ट निरुद्ध नही रहता क्यों कि उस स्थिति में भी उस के श्वासोच्छ्वासादि क्रियाएं चलती रहती हैं तथा धनधान्य की हानि या वद्धि भी चालू रहती है। अतः प्रत्येक समय में प्राणियों को पूर्वकालीन अदृष्ट से फलभोग मिलते रहता है यही मानना उचित है। किसी समय सब कार्यों का अभाव (प्रलय ) होता है यह बतलाने के लिए दूसरा अनुमान इस प्रकार दिया जाता है - जाति किसी समय व्यक्ति में विद्यमान नही रहती, उदाहरणार्थ अश्वत्व जाति गायों में विद्यमान नही है, अत: गोत्व जाति भी गोव्यक्तियों में किसी समय विद्यमान नहीं रहती होगी। ( जिस समय कोई जाति किसी व्यक्ति में १ विशेषादम्। २ सुषुप्तावस्थायां कालः। ३ यथा प्राणिभोगसहितोऽस्ति । ४ सामान्यत्वात् , सामान्य जातिः: सामान्यजन्मनः। ५ अश्वत्वं गोव्यक्तिषु यथा न प्रवर्तते। ६ मया नैयायिकेन । ७ गोजातिः अश्वजातो अश्वजातिः गोजा तो इति जातिसांकये भवति । ८ गोत्वं गोव्यक्तावेव वर्तते इति नैयायिकानां सिद्धान्तः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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