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________________ ६० विश्वतत्त्वप्रकाशः [ २४ ततः परमाणुपर्यन्तं कार्यविनाशः पुनः परमाणुभ्यां व्यणुकोत्पत्तिः saणुकेभ्यस्त्र्यणुकोत्पत्तिः त्र्यणुकेभ्यश्चतुरणुकोत्पत्तिरित्यादिभिरन्त्यावयवी उत्पद्यत इति भूभुवनभूधरादीनां जन्यत्वसिद्धेः हेतोर्भागासिद्धत्वाभाव इति चेन्न । भूभुवनभूधरादीनां जातुचिदुत्पत्यसंभवेन' हेतोः स्वरूपासिद्ध त्वात् । कथमिति चेत् सर्वदा प्रवर्तमान हस्त्यश्वरथपदातिमृगादीनां पादादिसंघट्टनेन लाङ्गलमूशलकुद्दालयष्टितोमरादीनामाहवसंघर्षणेन वात्यादीनां नोदनाभिघातेन पावकप्रभाकरादीनां दाहशोषणेन च परमाणुपर्यन्तं विनष्टानां भूभुवनभूधरादीनां पुनरुत्पत्तिसमयासंभवात् । कुतः तद्व्याघातकारिणां तत्र तत्राव्यवधानेन सर्वदा प्रवर्तमानत्वात् । प्रत्यक्षादिप्रमाणेन प्रक्रियायाः " तथानुपलम्भाच्च अप्रामाणिकीयं स्वरुचिविरचिता वैशेषिकी प्रक्रिया । तस्मात् भूभुवनादीनां नोदनाभिघातादिना विनाशे पुनर्जननासंभवात् तत्र जन्यत्व हेतोरप्रवृत्तेर्भागासिद्धत्वं समर्थिबिखरने से अवयवी द्रव्य नष्ट होते हैं और सब के अन्त में सिर्फ परमाणु बचे रहते है - बाकी सब कार्य द्रव्यों का नाश होता है । उत्पत्ति की प्रक्रिया इस से ठीक उलटी है - पहले दो परमाणु मिलकर द्वयक बनते हैं, द्वणुकों के मिलने से व्यणुक बनते हैं, त्र्यणुकों से चतुरणुक बनते हैं और इस प्रकार अणुओं के विभिन्न संयोगों से पृथ्वी आदि सभी पदार्थ उत्पन्न होते हैं 1 - हमारे मत में यह सब प्रक्रिया निराधार ही कल्पित की गई है। हाथी, घोडे, रथ, पशु आदि के चलने से तथा मूसल, कुदाल आदि के आघात से, तथा युद्ध में परस्पर प्रहरों से तथा अग्नि, सूर्य के द्वारा दाह, शोषण होने से जगत में अवयवों का बिखरना और परमाणु की अवस्था तक पहुंचना सदाही चलता रहाता है ( इस का यह तात्पर्य नहीं कि किसी समय सभी पदार्थ नष्ट हो कर सिर्फ परमाणुही बचे रहेंगे । ) यदि पृथ्वी आदि सब नष्ट हो कर सिर्फ परमाणु ही बचे रहते हैं तो उन से पुनः पृथ्वी आदि का निर्माण होना भी संभव नही है क्यों कि उन १ कदाचित् । २ वातसमूहो वात्या । ३ भूभुवनादि । ४ कुहालादीनाम् । ५ नोदनाभिघातेन अवयवेषु क्रिया क्रियातो विभागः विभागात् संयोगविनाशः इत्यादि पूर्वोक्ता प्रक्रिया | ६ भ्वादिषु । 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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