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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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प्रमाणत्वात् सुखादिवदिति च । ननु धर्मित्वेनाङ्गीकृतः सर्वज्ञः प्रमाणप्रतिपन्नः अप्रमाणप्रतिपन्नो वा । प्रथमपक्षे हेतुप्रयोगस्य वैयर्थ्यं स्यात् । सर्वशास्तित्वस्य प्रागेव प्रमाणप्रतिपन्नत्वात् । द्वितीयपक्षे धर्मिणोऽप्रमाणप्रतिपन्नत्वाद् आश्रयासिद्धो हेत्वाभासः स्यादित्यसौ पर्यनुयुंक्ते' । अत्रोच्यते । धर्मी प्रमाणप्रतिपन्नो न भवति अप्रमाणप्रतिपन्नो वा न भवति अपि तु विकल्पप्रतिपन्न एवेति ब्रूमः । विकल्पो नाम प्रमाणा-प्रमाण साधारणज्ञानमुच्यते । जलमरीचिकासाधारणप्रदेशे जलज्ञानवत् । तस्माद् धार्मणो विकल्पसिद्धत्वाद् हेतोर्नाश्रयासिद्धत्वं नापि हेतुप्रयोगस्य वैयर्थ्य विप्रतिपन्नं प्रति तदस्तित्वप्रसाधनात् । अथवा अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीतीति तस्य भासा सर्वमिदं विभातीत्याद्यागमात् प्रतिपन्नः सर्वज्ञो धर्मी क्रियत इति नाश्रयासिद्धत्वम् । तत्प्रामाण्येऽपि विप्रतिपन्नं प्रति सुनिश्चितासंभवद्द्बाधकप्रमाणत्वात् तत्प्रमेयास्तित्वं प्रसाध्यत उस में बाधक प्रमाण नहीं हो सकते यह उस का हेतु है । इस पर कोई आक्षेप करते हैं कि यहां धर्मी (सर्वज्ञ) प्रमाण से ज्ञात है या नही ? यदि ज्ञात है तो उस के विषय में हेतु आदि निरर्थक होंगे (क्यों कि उस का अस्तित्व ज्ञात ही है ) । यदि प्रमाण से धर्मी (सर्वज्ञ) ज्ञात नही है तो उस के बारे में अनुमान आदि कैसे हो सकते हैं ? वह प्रमाण से अनिश्चित होने से उस के विषय में हेतु आश्रयासिद्ध होगा । इस आक्षेप का उत्तर इस प्रकार है - यहां धर्मी ( सर्वज्ञ ) प्रमाण से ज्ञात है अथवा अज्ञात है ये दोनों बातें ठीक नही वह विकल्प से ज्ञात है ऐसा कहना चाहिये जैसे मृगजल के प्रदेश में जल का ज्ञान होने पर भी यह ज्ञान प्रमाण है अथवा अप्रमाण है यह निश्चय नहीं होता - विकल्प होता है वैसे ही सर्वज्ञ के विषय में विकल्प होने पर अनुमान आदि से उस का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है । अतः यह अनुमान प्रयोग निरर्थक नहीं है । अथवा उक्त आक्षेप का दूसरा उत्तर यह है – आगम से ( पूर्वोक्त उपनिषद्वाक्यों आदि से ) सर्वज्ञ का ज्ञान होता है तदनन्तर अनुमान का प्रयोग करते हैं अतः यहां धर्मी (सर्वज्ञ) असिद्ध नही है । जो आगम को प्रमाण
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१ वदति । २ चकासृ दीप्तौ । ३ तस्य सर्वज्ञस्य प्रमेयरूपं यदस्तित्वं तत् ।
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