________________
[ १८
एतस्माच्चार्वाक प्रमाणप्रसिद्धव्याप्तिकात् तर्काच्चार्वाकस्याप्रमितः सर्वज्ञ
आपाद्यत इति सर्वे सुस्थम् ।
[ १८. अष्टस्य प्रत्यक्षविषयत्वम् । ]
मीमांसकस्तु
३८
धर्मशत्व निषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद् विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥
( तव संग्रह का. ३१२८ ) इत्यभिहितत्वात् तन्मते धर्माधर्मसाक्षात्कार्येव विप्रतिपन्नो नान्यः " ततः ६ स एव प्रसाध्यते । अदृष्टं कस्यचित् प्रत्यक्षं प्रमेयत्वात् सुखादिवदिति । अत्रापि प्रमेयत्वं च स्यात् प्रत्यक्षत्वं च मा भूत् को विरोध इति चेत् न अदृष्टस्य प्रत्यक्षत्वाभावे प्रमेयत्वानुपपत्तेः । कुत इति चेत् अनुमानोपमानार्थापत्यभावाविषयत्वात् । कथम् ।
विश्वतत्त्वप्रकाशः
सिद्ध करना यही तर्क है । चार्वाकों को अमान्य सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए हम ने यह तर्क प्रयुक्त किया है ।
१८. अदृष्टपर विचार - मीमांसक मत में पुरुष के धर्म अधर्म का ज्ञान होना सम्भव नही माना है जैसा कि कहा है ' यहां केवल धर्मज्ञ होने का निषेध इष्ट है, पुरुष बाकी सब जाने तो उसे कौन रोकता है ?' अतः अब धर्म-अधर्म का ज्ञान पुरुष को होता है यह सिद्ध करते हैं । अदृष्ट ( धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप ) प्रमेय है अतः वह किसी पुरुष के प्रत्यक्ष का विषय होता है - उदाहरणार्थ सुख आदि जो प्रमेय हैं वे सब किसी के प्रत्यक्ष का विषय होते हैं । अदृष्ट प्रमेय है और प्रत्यक्ष विषय नही है यह मानने में क्या आपत्ति है यह प्रश्न हो सकता है । इस का उत्तर यह है कि अदृष्ट अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव का विषय नहीं है यह मीमांसकों ने ही कहा है . ' सब प्रमाताओं
१ सर्वज्ञ । २ पदार्थादि । ३ मीमांसकमते । ४ संदेहापन्नः अप्रतिपन्नः । ५ सकलपदार्थ साक्षात्कारी विप्रतिपन्नो न । ६ धर्माधर्मसाक्षात्कारी यो विप्रतिपन्नः स एव प्रसाध्यते । मीमांसको वदति भो जैन । ८ अदृष्टम् एतेषां प्रमाणानां विषयो न ।
७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org