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चार्वाक दर्शन- विचारः
पाषाणादीनां स्तुतिपूजादिवैचित्रस्यादृष्टप्रभवत्वसमर्थनात् । तस्माज्जीवस्य पृथग्द्रयत्वेन पृथ्वीवदनादित्वसिद्धेः सुखदुःखादि वस्तु वैचित्र्येणादृष्टसिद्धेश्च न लौकायतमतसिद्धिः, अपि तु जैनमतसिद्धिरेव अबोभूयिष्ट | [ १२. उत्तरपक्षोपसंहारे जीवस्य प्रमाणग्राह्यत्वम् । ]
यदपि प्रत्युचिरे चार्वाकाः - ननु अनाद्यनन्तरूप इति विशेषणमात्मनः कथं योयुज्यते, कायाकारपरिणतियोग्येभ्यो भूतेभ्यश्चैतन्यं जायते, जलबुद्बुदवदनित्या जीवा इत्याभिधानात् न केषामपि मते जीवस्य अनाद्यनन्तत्वग्राहकं प्रमाणं जाघठ्यते इति, तत् प्रलापमात्रमेव । जीवस्यानेकप्रमाणादनाद्यन्तत्वसमर्थनात् । चैतन्यं न देहात्मकं न देहकार्य न देहगुणोऽपि । प्रबन्धेन' प्रमाणतः प्रागेव समर्थनाच्च । यदन्यदत्रुवन्- न तावत् प्रत्यक्षं तद्ग्राहक प्रमाणं तस्य संबद्धवर्तमानार्थविषयत्वेन अनाद्यनन्तत्वग्रहण योगादिति, तत्रास्मदादिप्रत्यक्षं तत्तथैव' बोभवीति । योगिप्रत्यक्षं तु तद्ग्रहण समर्थ' बोभवीत्येव । अथ योगिप्रत्यक्षाभावात् तत्कथं तद्ग्रहणसमर्थ स्यादिति चेन्न । तस्येदानीमेव पुरतः समर्थनात् ।
भी यह वर्णन नही है । इस लिये पत्थरों के स्तुतिपूजा का उदाहरण दे कर अदृष्ट का खण्डन करना योग्य नहीं । अदृष्ट के अस्तित्व का समर्थन होने से जीव का पृथक द्रव्य होना तथा पृथ्वी आदि के समान अनादि होना भी स्पष्ट होता है ।
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१२. चार्वाक आक्षेपपर विचार - जीव को अनादि - अनन्त कहने के लिये कोई प्रमाण नही अतः मंगलाचरण में प्रयुक्त अनाद्यनन्तरूप यह विशेषण योग्य नही यह आक्षेप चार्वाकों ने प्रस्तुस्त किया था । इस का अब उत्तर देते हैं । चैतन्य देह का कार्य नहीं है, देह का गुण नही है तथा देहात्मक भी नही है यह पहले स्पष्ट किया ही है । उन अनुमानों से जीव के अनादि अनन्त होने का स्पष्ट समर्थन होता है । प्रत्यक्ष प्रमाण से सम्बद्ध तथा वर्तमान पदार्थों का ही ज्ञान होता है अतः अनादि अनन्त होते का ज्ञान उस से नही हो सकता यह कहना हम जैसे साधारण पुरुषों के प्रत्यक्ष ज्ञान के लिये ठीक है । किन्तु योगियों
१ विस्तरेण । २ जीवस्य अनाद्यनंतत्वग्राहकम् । ३ अनाद्यनन्तत्वग्राहकम् । ४ जीवस्य अनाद्यनन्तत्वग्रहणे । ५ योगिप्रत्यक्षम् । ६ अनाद्यनन्तत्व । ७ योगिप्रत्यक्षस्य ।
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