SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ विश्वतत्त्वप्रकाशः [६ लत्वात् । अथ जीवः शरीरादनन्यः शरीरव्याघातेन व्याइन्यमानत्वात् शरीररूपवदिति भविष्यतीति चेन्न । विचारासहत्वात् । शरीरव्याघातेन व्याहन्यमानत्वं नाम शरीरविनाशेन विनाशित्वं, शरीरच्छेदेन छेद्यत्वं, शरीरभेदेन दुःखित्वं वा । प्रथमपक्षे असिद्धो हेतुः। शरीरविनाशात् पूर्वमेव शरीरे जीवाभावस्य' निश्चितत्वेन शरीरविनाशाद विनाश्यत्वाभावात् । जीवः शरीरविनाशान्न विनश्यति, निरवयवद्रव्यत्वात् अतीन्द्रियद्रव्यत्वाच्च परमाणुवदिति प्रमाणाच्च । द्वितीयपक्षेऽप्यसिद्धो हेतुः । जीवो न छेद्यः तत एव तद्वदिति । दृष्टान्तोऽपि साधनविकलः। रूपादीनां निरवयवत्वेन छेद्यत्वाभावात्। तृतीयपक्षेऽपि साधनशून्यं निदर्शनम् । रूपादीनामचेतनत्वेन दुःखित्वाभावात्। तस्माज्जीवो न शरीरात्मकः चेतनत्वात्, अजडत्वात् अनणुद्वयणुकत्वेसति बाह्येन्द्रियग्रहणायोग्यत्वात्, अनणुत्वे सति निरवयवद्रव्यत्वात्, स्पर्शादिरहितद्रव्यत्वाच्च, व्यतिरेके शरीर से भिन्न नही है- यह युक्तिवाद भी दोषयुक्त है। यहां जीव और शरीर से सम्बद्ध उदाहरण देना चाहिये-वस्त्र के नाश होने से शरीर या जीव का सम्बन्ध नही है। शरीर नष्ट होने पर शरीर का रूप नष्ट होता है उसी प्रकार जीव नष्ट होता है अतः जीव शरीर से अभिन्न है- यह यक्तिवाद भी ठीक नही । एक दोष तो यह है कि शरीर से भिन्न कोई जीव नामक द्रव्य नहीं है ऐसा चार्वाक मानते हैं अतः शरीर के नष्ट होनेपर जीव नष्ट होता है यह विधान निरर्थक होता है। परमाणु के समान जीव भी निरवयव तथा अतीन्द्रिय द्रव्य है अतः उस का नाश नही होता- यह अनुमान भी उक्त विधान में बाधक है। शरीर के छेदन करने पर जीव भी छिन्न होता है यह कहना भी इसी प्रकार दोषयुक्त है। दूसरे, शरीर के रूप का जो उदाहरण दिया है उस में भी यह विधान लागू नही होता क्यों कि रूप गुण निरवयव है अतः उसका छेदन नही हो सकता। शरीर को दुःख होने पर जीव दुःखी होता है अतः वे अभिन्न हैं- यह विधान भी सदोष है क्यों कि ( शरीर तथा ) शरीर का १ चा कमते सर्वथा जीवाभावः। २ निरवयवद्रव्यत्वात् अतीन्द्रियद्रव्यत्वात् । ३ परमाणुवत् । ४ शरीररूपादिवत् अयं दृष्टान्तः। ५ बाह्यन्द्रियग्रहणायोग्यत्वम् अणुषु विद्यते तथा द्वयणुके चास्ति तत्रा तिव्याप्तिस्तद्व्यावृत्त्यर्थम् अनणु-अद्वयणुकत्वेसति विशेषणम् ६ यः शरीरात्मको भवति स चेतनो न भवति यथा शिरादिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy