________________
प्रस्तावना
१०५
कई बार विस्तृत तार्किक चर्चा प्राप्त होती है। ऐसे प्रसंगो का पूर्णतः संकलन या वर्णन करना कठिन है । तथापि दिग्दर्शन के तौर पर हम यहां कुछ प्रमुख उदाहरणों का उल्लेख कर रहे हैं।
आगमाश्रित ग्रंथों में- जिनभद्र ( सातवीं सदी) का विशेषावश्यक भाष्य तथा उन्हीं की अन्य रचना विशेषणवती इन दोनों में तार्किक चर्चा के कई प्रसंग आये हैं, विशेषतः सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र की आलोचना उल्लेखनीय है । आगमों के प्रमाण विषयक विचारों का उन्हों ने अच्छा स्पष्टीकरण किया है। हरिभद्र ने अपने विशुद्ध तार्किक ग्रन्थों के अतिरिक्त धर्मसंग्रहणी, अष्टकप्रकरण, लोकतत्त्वनिर्णय आदि ग्रंथों में भी पर्याप्त तर्काश्रित चर्चाएं लिखी हैं । शीलांक ( नौवीं सदी) ने सूत्राकृतांग की टीका में चार्वाक, वेदान्त तथा बौद्ध मतों की विस्तृत आलोचना प्रस्तुत की है । शांतिसूरि (ग्यारहवीं सदी) की उत्तराध्ययनटीका, अभय. देव (ग्यारहवीं सदी) की नौ अंगों तथा दो उपांगों की टीकाएं, मलयगिरि (बारहवीं सदी) की चार उपांगों तथा छेदसत्र-मूलसूत्रों की टीकाएंइन सब में भी मूल आगमग्रंथों में सत्ररूप में निर्दिष्ट तार्किक विषयो की चर्चा अपने समय के अनुरूप विस्तार से की हुई मिलती है ।
पुराणों तथा काव्यों में प्रायः प्रत्येक पुराण या काव्य में किसी सर्वज्ञ अथवा विशिष्टज्ञानधारी मुनि के उपदेश के प्रसंग में जैन साहित्य के विविध विषयों का समावेश कर दिया जाता है। इन उपदेशों में कई बार तार्किक चर्चाएं भी समाविष्ट हुई हैं। इस दृष्टि से वीरनन्दि ( नौवींदसवीं सदी ) के चन्द्रप्रभचरित का दूसरा सर्ग उल्लेखनीय है। इसी प्रकार वादिगज ( ग्यारहवीं सदी) का पार्श्वचरित्र, हरिचन्द्र (बारहवीं सदी का धर्माशर्माभ्युदय आदि काव्यों में भी एक एक सर्ग तार्किक चर्चा के लिए दिया गया है। जिनसेन ( नौवीं सदी) के महापुराण में ऋषभदेव के पूर्वभव के वर्णन में महाबल राजा तथा उस के मंत्रियों का विस्तृत संवाद महत्त्वपूर्ण है । इस में चार्वाकों का भूतचैतन्यवाद तथा बौद्धों का शून्यवाद इन का अच्छा निराकरण प्राप्त होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org