________________
विश्वतत्त्वप्रकाशः
उस समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय के किसी आचार्य का प्रमाणशास्त्र - विषयक वार्तिक ग्रन्थ प्राप्त नही था इस आक्षेप को दूर करने लिये जिनेश्वर ने प्रमालक्ष्म नामक ग्रंथ लिखा । इस में न्यायावनार के प्रथम श्लोक को आधार मानकर वार्तिक रूप में ४०५ श्लोक लिखे हैं और उन की गद्य वृत्ति कोई ४००० श्लोकों जितनी है। प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द इन प्रमाणों का स्वरूप वर्णन कर उपमानादि अन्य प्रमाणों का इन्हीं में अन्तर्भाव होता है यह प्रथकर्ता ने स्पष्ट किया है । तत्त्वविवेचक सभा, अहमदाबाद ]
[ प्रकाशन
जिनेश्वर के अन्य ग्रंथ ये हैं - अष्टक प्रकरणवृत्ति (सं. १०८०), चैत्यवन्दन विवरण (सं. १०९६), पद्स्थानक प्रकरण, पंचलिंगी प्रकरण, निर्वाणलीलावती कथा तथा कथानक कोश ( कथाकोश प्रकरण ) ( सं. ११०८ ) । इन से उन की ज्ञात तिथियां सन १०२४ से १०५२ तक निश्चित होती हैं ।
८२
४१. शान्तिमूरि— पूर्णतलगच्छ के आचार्य वर्धमान के शिष्य शान्तिसूरि ने भी न्यायावतार पर वार्तिक तथा वृत्ति की रचना की है । वार्तिक की पद्यसंख्या ५७ है । उस की वृत्ति गद्य में है तथा उस का परिमाण २८७३ श्लोकों जितना है । वृत्ति को विचारकलिका यह नाम दिया है । ग्रन्थ के चार परिच्छेद हैं तथा उन में क्रमश: प्रमाण का लक्षण, प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम इन विषयों का विचार किया गया है । शान्तिसूरि ने अनन्तकीर्ति, अनन्तवीर्य तथा अभयदेव की कृतियों का उपयोग किया हैं और उन का ग्रन्थ देवसूरि, देवभद्र तथा चन्द्रसेन के सन्मुख था । अतः उन का समय ११ वीं सदी का मध्य निश्चित होता है- वे प्रायः जिनेश्वर के समकालीन थे । सर्वज्ञवादटीका यह उन की दूसरी तार्किक कृति अनुपलब्ध है । उन की अन्य कृतियों में वृन्दावन, घटकर, मेघाभ्युदय, शिवभद्र तथा चन्द्रदूत इन पांच काव्यों की टीकाएं तथा तिलकमंजरी का टिप्पण इन का समावेश होता है । [ प्रकाशन - १ जैनतर्कवार्तिक, पंडित पत्र, काशी १९१७, ( मूलमात्र ); २ न्यायावतारवार्तिकवृत्ति, सं. पं. दलसुख मालवणिया, टिप्पणादि सहित, सिंधी ग्रंथमाला, बम्बई, १९४९ ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org