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________________ 52 : तत्त्वार्थ सूत्र : ऊर्ध्व लोक • शयस्त्रिंशलोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्का: ।। ५ ।। व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में बायरित्रंश तथा लोकपाल नहीं होते हैं • पूर्वयोर्दीन्द्राः ।।६।। पहले के दो (निकाय) दो दो इन्द्र वाले हैं। (६) पीतान्तलेश्या: ।।७।। (पहले दो निकायों के देव) पीत (तेजो) पर्यन्त लेश्या (कृष्ण, नील, कापोत, और पीत लेश्या) वाले हैं। (७) • कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ।।८।। शषा: स्पर्शरूपशब्दमन:प्रवीचारा द्वयोयो: ।।९।। ऐशान-कल्प तक (भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा प्रथम व द्वितीय वैमानिक कल्पों तक) के देव कायप्रवीचार अर्थात् शरीर से विषय-सुख भोगने वाले होते हैं। अगले कल्पों में दो दो कल्पों के देव क्रमश: स्पर्श, रूप, शब्द व मनःसंकल्प द्वारा विषय-सुख भोगने वाले होते हैं। (८-६) • परेऽप्रवीचारा: ।।१०।। शेष कल्पों के देव प्रवीचार रहित अर्थात् विषय-सुख की कामना से रहित होते हैं। (८-१०) भवनवासी देव • भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीप दिक्कुमारा: ।।११।। भवनवासी निकाय के दस प्रकार के देव हैं ... असुरकुमार, नागकुमार, विद्युतकुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकमार, वातकमार, स्तनितकुमार, उदधिकमार, द्वीपकुमार एवं दिक्कुमार । (११) . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001632
Book TitleTattvartha sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorD S Baya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2004
Total Pages242
LanguageEnglish, Sanskrit
ClassificationBook_English, Philosophy, Tattvartha Sutra, J000, J001, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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