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________________ 20 : तत्त्वार्थसूत्र : जीव-तत्त्व • ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ।।४।। १. ज्ञान, २. दर्शन, ३. दान, ४. लाभ, ५. भोग, ६. उपभोग व ७. वीर्य तथा (पूर्व सूत्र में वर्णित) ८. सम्यक्तव और ६. चारित्र - ये नौ क्षायिक भाव हैं। (४) यथाक्रमम् • ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदा सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ।।५।। क्षायोपशमिक या मिश्र भाव के अठारह भेद हैं - १-४. चार ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्याय), ५-७. तीन अज्ञान (मति, श्रुत व अवधि), ८-१०. तीन दर्शन (चक्षु-दर्शन, अचक्षु-दर्शन व अवधि-दर्शन), ११-१५. पाँच लब्धियाँ (दान, लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य जो कि अन्तराय के क्षयोपशम से प्राप्त होते हैं), १६. सम्यक्त्व, १७. चारित्र (सर्वविरत या साध्वाचार) तथा १८. संयमासंयम (देशविरत या श्रावकाचार)। (५) • तिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धत्वलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र येकैकैकषड्भेदाः ।।६।। औदयिक भाव के इक्कीस भेद हैं -- १-४. चार गतियाँ (देव, नारक, तियञ्च व मनुष्य), ५-८. चार कषाय (कोध, मान, माया और लोभ), ६-११. तीन लिङ्ग (रत्री, पुरुष, व नपुंसक), १२. मिथ्यादर्शन, १३. अज्ञान, १४ असंयम, १५. असिदत्व, १६ २१. षड्लेश्या (कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल)। (६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001632
Book TitleTattvartha sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorD S Baya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2004
Total Pages242
LanguageEnglish, Sanskrit
ClassificationBook_English, Philosophy, Tattvartha Sutra, J000, J001, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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