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________________ 144 : तत्त्वार्थ सूत्रः संवर व निर्जरा • दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ।।१४।। • चारित्रमोहेनाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः । ।१५।। • वेदनीये शेषाः ।।१६।। • एकादयो भाज्या युगपदैकोनविंशते: ।।१७।। दर्शनमोह व अन्तराय कर्म के उदय से क्रमशः अदर्शन व अलाभ परीषह होते हैं। चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से नग्नत्व, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, व सत्कार-पुरस्कार परीषह होते हैं। शेष सभी परीषह वेदनीय कर्म के उदय से होते हैं। किसी प्राणी को एकसाथ एक से उन्नीस परीषह विकल्प से हो सकते हैं। (१४-- १७) चारित्र के भेद - • सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसंपराययथाख्या तानि चारित्रम् ।।१८।। सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात - ये पाँच प्रकार के चारित्र हैं। (१८.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001632
Book TitleTattvartha sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorD S Baya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2004
Total Pages242
LanguageEnglish, Sanskrit
ClassificationBook_English, Philosophy, Tattvartha Sutra, J000, J001, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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