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________________ 134 : तत्त्वार्थ सूत्र : बन्ध-तत्त्व अनुभाव-बन्ध - • विपाकोऽनुभाव: ।। २२ । । • स यथानाम ।।२३।। विपाक अर्थात् कर्म की फल देने की शक्ति ही अनुभाव कहलाती है। वह अनुभाव (कर्म की) प्रकृति के अनुसार ही वेदन किया जाता है। (२२-२३) • ततश्च निर्जरा । । २४ । उससे ही निर्जरा होती है। (२४) प्रदेश-बन्ध • नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्राव- गाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेश: ।। २५।। योगों की विशेष क्रिया द्वारा अनन्तानन्त सूक्ष्म कर्म-पुद्गल-परमाणु सभी ओर से आकर कर्म-प्रकृत्यानुसार स्कन्ध रूप संघठित होकर सम्पूर्ण आत्म-प्रदेश में एकक्षेत्रावगाही होकर स्थित होते हों वही प्रदेश-बन्ध है। (२५) पुण्य और पाप - • सद्वेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ।।२६।। सातावेदनीय, सम्यक्तव, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभायु, शुभ-नाम, व शुभ-गोत्र - इतनी प्रकृतियाँ पुण्य रूप हैं; शंष सभी कर्म-प्रकृतियाँ पाप रूप हैं। (२६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001632
Book TitleTattvartha sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorD S Baya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2004
Total Pages242
LanguageEnglish, Sanskrit
ClassificationBook_English, Philosophy, Tattvartha Sutra, J000, J001, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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