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________________ 128 : तत्त्वार्थ सूत्र : बन्ध-तत्त्व • सदसद्वद्ये ।।९।। वेदनीय कर्म के सद् - सातावेदनीय तथा असद् - असाता वेदनीय ये दो भेद हैं । (६) दर्शनचारित्रमोहनीयकषायनोकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विषोडषनवभेदा: सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानि कषायनोकषायावनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानावरणसंज्वलनविकल्पाश्चैकश: क्रोधमानमायालोभा: हास्य रत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसक वेदाः ।।१०।। मोहनीयकर्म के दो भेद हैं - दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय। दर्शनमोहनीय के तीन रूप हैं - सम्यक्त्व-मोहनीय, मिथ्यात्व-मोहनीय, और तदुभय अर्थात् सम्यक्तव-मिथ्यात्वमोहनीय। चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं - कषाय-चारित्रमोहनीय व नोकषाय-चारित्रमोहनीय। कषाय पुनः चार हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ जिनमें प्रत्येक के चार चार भेद हैं - संज्वलन, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान व अनन्तानुबन्धी इस प्रकार कषाय-चारित्रमोहनीय के सोलह भेद हुवे; इनमें नोकषाय-चारित्रमोहनीय के नो भेद - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद व नपुंसक वेद - मिलाकर कुल पच्चीस भेद चारित्रमोहनीय के होते हैं तथा इनमें तीन भेद दर्शन-मोहनीय के मिलाने से मोहनीय-कर्म के कुल अट्ठाईस भेद होते हैं। (१०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001632
Book TitleTattvartha sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorD S Baya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2004
Total Pages242
LanguageEnglish, Sanskrit
ClassificationBook_English, Philosophy, Tattvartha Sutra, J000, J001, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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