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106 : तत्त्वार्थ सूत्र : व्रत और भावनाएँ
अन्य सहयोगी भावनाएँ - • हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् ।।४।। • दुःखमेव वा ।।५।।
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमाना विनेयेषु।। जगत्कायस्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् ।।७।। हिसा आदि पाँच दोषों में इहलोक में आपत्ति तथा परलोक में अनिष्ट का चिंतन करना।
अथवा इन दोषों में दुःख ही है, ऐसा चिंतन करना। • प्राणीमात्र के प्रति मैत्री-भाव, गुणाधिकों के प्रति प्रमोद-भाव,
दुःखियों के प्रति करुणा-भाव तथा अयोग्य-अपात्रों के प्रति माध्यस्थ-भाव रखना। संवेग तथा वैराग्य के लिये जगत् व काया के स्वभावों का
चिंतन करना। (४-७) १. हिंसा - • प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणम् हिंसा ।।८।। प्रमत्त-योग से (प्रमाद पूर्वक) हुवा प्राण-वध हिंसा है। (८)
Non-Stealing - Thoughtfulness in asking for palce for stay once or
repeatedly from the followers of own faith or from others, to decide upon the extent of space before asking for it and to eat and drink
after obtaining permission of one's superiors or masters. Sexual continence - Not using the beds laid upon by members of
opposite sex or hermophrodites, not to indulge in sex-talk, not to look at the erotic body-parts of the members of opposite sex, not to recall past sexual experiences and not to consume stimulant food or
drink. Non-attachment to possessions - To have equanimity of thoughts
when exposed to pleasant or unpleasant touch, taste, smell, sight or sound encourages one from inculcating attachment towards one's possessions.
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