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98 : तत्त्वार्थ सूत्र : आम्रव तत्त्व
• दर्शनविशद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोग
संवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी संघसाधसमाधिवैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्य-- बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलमिति तीर्थंकरत्त्वस्य ।। २३।।
दर्शन-विशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील व व्रतों का अनतिचार पालन,
ज्ञान-साधना में निरंतर प्रवृत्ति, सतत संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग और तप, संध और साधु की समाधि और वेयावृत्त्य करना; अरिहन्त, आचार्य, बहुश्रुत तथा प्रवचन की भक्ति करना, आवश्यकों का परिपालन, मोक्ष-मार्ग की प्रभावना करना, प्रवचन-वात्सल्य (स्वधर्मी-वात्सल्य) ये सब तीर्थङ्कर-नाम-कर्म के बन्धा हेतु (आस्रव) हैं। (२१-२३)
७. गोत्र कर्मास्रव के हेतु - • परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य
। (२४।। • तद्विपर्ययो नीचैवृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।। २५।।
परनिन्दा, आत्म-प्रशंसा, सद्गुणों का आच्छादन व असद्गुणों का
प्रकाशन ये नीच-गोत्र के बन्ध के (आश्रव) कारण हैं। इनके विपरीत अर्थात् पर-प्रशंसा, आत्मालोचन, सद्गुण-प्रकायन व अ असद्गुणाच्छादन तथा नम्रवृत्ति व निरभिमानता उच्च-गोत्र के आम्नव (व बन्ध) के कारण हैं। (२४-२५)
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