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92 : तत्त्वार्थ सूत्र : आस्रव तत्त्व
• निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ।।१०।।
पर अर्थात् दूसरे अजीव-अधिकरण के निवर्तना-रचना के अन्तः व
बाह्य निर्वतना रूप दो; निक्षेप-रखना के अप्रत्यवेक्ष्ति, दुष्प्रमार्जित, सहसा व अनायोग निक्षेप रूप चार; संयोग के भक्तपान संयोग व उपकरण संयोग रूप दो तथा निसर्ग-प्रवृत्ति - मनः-निसर्ग, वचन-निसर्ग व काय-निसर्ग रूप तीन भेद-प्रभेद रूप हैं। (८-१०)
साम्परायिक कर्म आनवहेतु - १-२. ज्ञानदर्शनावरणीय कर्म के आम्रवहेतु - • तत्प्रदोषनिहवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता
।।११।।
ज्ञानदर्शनावरणयो:
ज्ञान अथवा ज्ञान के साधनों का प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अन्तराय,
आसादन व उपघात ये ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय कर्मों के आस्रव (बन्ध हेतु) हैं। (११)
३. वेदनीय कर्मानव के हेतु - • दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य
।।१२।।
दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन - स्वयं करने से,
दूसरों से कराने से तथा दोनों से अशातावेदनीय-कर्म का आम्रव व बन्ध होता है। (१२)
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