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90 : तत्त्वार्थ सूत्र : आस्रव तत्त्व
साम्परायिक कर्मानव • अवतकषायेन्द्रियक्रिया: पञ्चचतु: पञ्चपञ्चविंशतिसंख्या: पूर्वस्य
भेदा: ।।६।। पूर्वोक्त (साम्परायिक-आस्रव) के चार भेद हैं - अव्रत, कषाय, इन्द्रिय
और क्रिया । अनुक्रम से इनकी संख्या पाँच-अव्रत (हिंसा, मृषा, चौर्य, अब्रह्म व परिग्रह), चार-कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ), पाँच-इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसन, लोचन, घ्राण एवं वचन), तथा पच्चीस क्रियाएँ (मिथ्यात्व, प्रयोग, समादान, कायिकी,
आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी, दर्शन, स्पर्शन, प्रात्यायिकी, समन्तानुपातन, अनाभोग, स्वहस्त, निसर्ग, विदार, आनयनी, अनवकांक्ष, आरम्भ, पारिग्रहिकी, माया,
मिथ्या-दर्शन, अप्रत्याख्यान, आदि) हैं। (६) • तीवूमन्दज्ञाताज्ञातभाववीर्याऽधिकरणविशेषेभ्यस्तद्विशष: ।।७।। कर्म-आस्रव (व बन्ध) में विशेषता तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव,
अज्ञातभाव, वीर्य व अधिकरण की विशेषता के कारण होती है।
• अधिकरणं जीवाजीवा: ।।८।।
आद्यंसंरम्भसमारम्भारम्भयो गकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिप्रचतुश्चैकश: ।।९।।
कर्म-आश्रव व बन्ध के अधिकरण जीव और अजीव रूप हैं। आद्य
अर्थात् प्रथम जीव-अधिकरण - संरम्भ, समारम्भ व आरम्भ के भेद से तीन; योग - मन, वचन व काया के भेद से तीन; कृत, कारित व अनुमत के भेद से तीन तथा कषाय ... क्रोध, मान, माया व लोभ के भेद से चार भेद-प्रभेद हैं।
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