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________________ ६३८ लब्धिसार-क्षपणासार दोहा ऐसा शास्त्राभ्यासको, उत्तम फल पहिचानि । रमो शास्त्र आराममहि, सीख लेहु यहु मानि ॥ ५७ ॥ हम किछु शास्त्राभ्यास करि, फल पायो सुखकार । अब संपूरण सुखमई, होसी फल विस्तार ॥ ५८ ।। शास्त्राभ्यासविर्षे सुभग, बढयो अधिक उत्साह । तातै भाषा शास्त्र रचि, कियो अर्थ अवगाह ।। ५९ ॥ आरंभ्यो पूरण भयो, शास्त्र सुखद प्रासाद । अब भए कृतकृत्य हम, पायो अति आल्हाद ।। ६० ॥ उपकारिको मानिए, भएं आपनौ काज। ताते इस अवसर विष, बंदौं गरु महाराज ॥ ६१ ।। आदि अंत मंगल करत, होत काज हितकार । तातें मंगलमय नमौं, पंच परम गुरु सार ।। ६२ ।। सवैया अरहंत सिद्ध सूरि उपाध्याय साधु सर्व ___अर्थके प्रकाशी मंगलीक उपकारी हैं। तिनको स्वरूप जानि राग” भई है भक्ति ताते कायकों नमाय स्ततिकौं उचारी है। धन्य धन्य तुम तुमहीतैं सब काज भयो करजोरि वारंवार बंदना हमारी है। मंगल कल्याण सुख ऐसो अब चाहत हैं होहु मेरी ऐसी दशा जैसी तुम धारी है ।। ६३ ।। इति श्रीलब्धिसार वा क्षपणासारसहित गाम्मटसार शास्त्रको सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नामा भाषा टीका संपूर्ण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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