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________________ ४४८ क्षपणासार प्रथमादिसंग्रहाणां चरमे फालिं तु द्वितीयप्रभृतीनाम् । अधस्तनं सर्व ददाति हि मध्ये पूर्वमिव एकभागम् ॥५४३॥ स० चं०-प्रथमादि संग्रह कृष्टिनिका अंत समयविर्षे जो संक्रमण द्रव्यरूप फालि ताहि द्वितीयादि संग्रह कृष्टिनिके नीचें सर्व देहै अर मध्यविषै पूर्ववत् एक भागकौं देहै। भावार्थ-जिस संग्रहकृष्टिकौं भोगवै है ताका नवक समयप्रबद्ध बिना सर्व द्रव्य सो सर्व संक्रमणरूप है । जो उच्छिष्टावली सो ही अन्त फालि है। ताकौं अनन्तर समयविर्षे याके अनन्तर जो संग्रह कृष्टि भोगिए ताके नीचे अर वीचिमैं अपूर्व कृष्टिरूप परिणमावै है। तहां तिह संग्रह कृष्टिकी अवयव कृष्टिनिके बीचि जे अपूर्व कृष्टि करिए है ते पूर्ववत् अंत समयविषै अपने द्रव्यका असंख्यातवां भागमात्र द्रव्यकरि निपजाइए है। बहुरि अवशेष सर्व द्रव्यकरि तिस संग्रहकृष्टिके अनन्तरि द्वितीय संग्रह कृष्टि भोगिए है सो इहां भी ऐसा ही विधान जानना । इहां प्रश्न जो पूर्वं कृष्टिवेदकका प्रथम समयका व्याख्यानविर्षे नीचें करी कृष्टिनिका प्रमाणते वीचिकरी कृष्टिनिका प्रमाण असंख्यातगुणा कह्या था, इहां वीचिकरी कृष्टिनिविर्षे दीया द्रव्यतै नीचें करी कृष्टिनिविष दीया द्रव्य असंख्यातगुणा कहया तातै विरुद्ध आवै है ? ताका समाधानतहां तौ संग्रहकृष्टिके द्रव्यका असंख्यातवां भागमात्र द्रव्य ग्रहया था ताका विधान कया थ था, इहां सर्व संग्रह कृष्टिके द्रव्यकी अपेक्षा वर्णन है. तातै इहां ऐसा विधान जानना। बहरि जो इहां भी पूर्ववत् विधान करिए तौ अन्तर कृष्टिनिके वीचि नवीन कृष्टि बहुत निपजैं, सर्व अवयव कृष्टिनिके वीचि वीचि अपूर्व कृष्टि होइ तब पूर्व कृष्टिविष दीया द्रव्यतें असंख्यातगुणा घटता द्रव्य जो कृष्टिविष दीया तारौं अनंतरवर्ती कृष्टिनिविर्षे दीया द्रव्य असंख्यातगुणा होइ सो ऐसे द्रव्य देना । सूत्रविर्षे नाहीं कहया है, तातै इहां विधान कया है सोई अंगीकार करना ।।५४३॥ कोहस्स विदियकिट्टीवेदयमाणस्स पढमकिट्टि वा । उदओ बंधो णासो अपुव्वकिट्टीण करणं च ॥ ५४४ ॥ क्रोधस्य द्विीतीयकृष्टिवेदकस्य प्रथमकृष्टिरिव । उदयो बंधो नाशः अपूर्वकृष्टीनां करणं च ।। ५४४ ॥ स० चं-क्रोधको द्वितीय संग्रहकृष्टिका वेदक कृष्टिनिका उदय अर बंध अर घात अर संक्रमण द्रव्यकरि वा बध द्रव्यकरि अपूर्व कृष्टिका करना इत्यादि विधान जैसे प्रथम संग्रह कृष्टिका कहया तैसे ही समस्त कहना ॥ ५४४ ॥ कोहस्स विदियसंगहकिट्टी वेदंतयस्स संकमणं । सट्टाणे तदियो ति य तदणंतरहेद्विमस्स पढमं च ॥ ५४५ ॥ क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकृष्टिवेद्यमानस्य संक्रमणं । स्वस्थाने तृतीयांतं च तदनंतरमघस्तनस्य प्रथमं च ॥ ५४५ ॥ १. उदिणाणं किट्टीणं वज्झमाणीणं किट्टीणं विणासिज्जमाणीणं अपुव्वाणं णिबत्तिज्जमाणीणं वज्झमाणेण च पदेसग्गेण संछब्भमाणेण च पदेसग्गेण णिवत्तिज्जमाणियाणं । क० चु० पू० ८५६ । २. क० चु० पृ० ८५६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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