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________________ कृष्टियोंमें द्रव्यके वटवारेकी प्ररूपणा क्रोधादिकृष्टिवेदकप्रथमे तस्य च असंख्यभागं तु। नाशयति हि प्रतिसमयं तस्यासंख्यभागक्रमम् ॥ ५२६॥ स० चं०-क्रोधकी प्रथम सग्रह कृष्टिका वेदक जीव है सो प्रथम समयविर्षे सर्व कृष्टिनिका असंख्यातवां भागमात्र कृष्टिनिकौं नास है-घात करै है। बहुरि द्वितीय समयविषै ताके असंख्यातवें भागमात्र कृष्टिनिका घात करै है। ऐसे ही क्रमतें समय समय प्रति असंख्यातवाँ भागमात्र क्रमकरि घात कृष्टिनिका प्रमाण क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिका द्विचरम समयपर्यंत जानना, जातै अन्त समयविष नवक बंध अर उच्छिष्टावली विना विवक्षित संग्रह कृष्टिकी सर्व ही कृष्टिनिका अभाव हो है ॥ ५३६ ॥ विशेष-विशुद्धिके माहात्म्यवश अनुसमय अपवर्तनाके द्वारा विवक्षित संग्रह कृष्टिकी अग्र कृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको नष्ट करता है । ये प्रथम समयमें नष्ट होनेवाली कृष्टियाँ द्वितीयादि समयोंमें नष्ट होनेवाली कृष्टियोंकी अपेक्षा बहुत होती हैं। जो दूसरे समयमें नष्ट होती हैं वे असंख्यातगुणी हीन होती हैं। अपनी कृष्टियोंके वेदक कालके भीतर द्विचरम समयके प्राप्त होने तकः अनुसमय अपवर्तनाके द्वारा उक्त कृष्टियोंका इसी प्रकार विनाश होता जाता है। किन्तु अन्तिम समयमें नवक बन्ध तथा उच्छिष्टावलिको छोड़ कर नष्ट नहीं हुई क्रोधसम्बन्धी प्रथम संग्रह कृष्टियोंका अनुत्पादानुच्छेदरूपसे विनाश देखा जाता है । कोहस्स य जे पढमे संगहकिट्टिम्हि णट्ठकिट्टीओ। बंधुज्झियकिट्टीणं तस्स असंखेज्जभागो हु ।। ५३७ ।। क्रोधस्य च याः प्रथमे संग्रहकृष्टौ नष्टकृष्टयः । बंधोज्झितकृष्टीनां तस्यासंख्येयभागो हि ॥ ५३७ ॥ स० चं०-क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टि वेदकका सर्व कालविषै जे नष्ट कृष्टि भईं, जिनि कृष्टिनिका घात कीया तिनिका प्रमाण कृष्टि वेदकका प्रथम समयविर्षे क्रोधका प्रथम संग्रह कृष्टिविर्षे जो ऊपरिकी बंधरहित कृष्टिनिका पूर्व प्रमाण कह्या था ताके असंख्यातवें भागमात्र जानना ।। ५३७ ॥ विशेष-अब कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर विवक्षित प्रथम संग्रहकृष्टिके विनाशकालके द्विचरम समय तक विनाश होनेवाली कृष्टियाँ सब मिलकर कितनी हैं इसी बातको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि वे उपरिम बन्ध रहित कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। यहाँ प्रथम समयमें कृष्टिवेदकके क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंकी बन्ध रहित कृष्टियाँ संज्ञा है। प्रकृतमें क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टिकी अपेक्षा जो कृष्टियोंके विनाशका क्रम कहा है उसी प्रकार शेष संग्रह कृष्टियोंके विषयमें भी जानना चाहिये । कोहादिकिट्टियादिट्ठिदिम्हि समयाहियावलीसेसे । ताहे जहण्णुदीरइ चरिमो पुण वेदगो तस्से ॥ ५३८ ॥ १. एदेण सव्वेण तिचरिमसमयमेत्तीओ सव्वकिट्टीसु पढम-विदियसमयवेदगस्स कोधस्स पढमकिट्टीए अबज्झमाणियाणं किट्टीणमसंखेज्जदिभागो । क. चु. पृ. ८५५ । २. कोहस्स पढमकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमदिदी तिस्से पदमद्विदीए समयाहियाए आवलियाए Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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