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________________ क्षपणासार दिज्जदि अणंतभागेणूणकम बंधगे य णंतगुणं । तण्णंतरे गंतगुणूणं तत्तोणंतभागूणं ।। ५३३ ।। दीयते अनंतभागेनोनक्रमं बंधके चानंतगुणं । तदनंतरेऽनंतगुणोनं ततोऽनंतभागोनं ॥५३३॥ स० चं०-बंध द्रव्य कृष्टिनिविर्षे कैसैं दीजिए है सो कहिए है-पूर्वकृष्टिविषै बहुत द्रव्य दीजिए है । बहुरि दूसरी पूर्व कृष्टिविधैं ताके अनंतवे भागमात्र जो एक विशेष ताकरि घटता द्रव्य दीजिए है । ऐसें यावत् अपूर्व कृष्टि न प्राप्त होइ तावत् अनन्तभागरूप विशेष घटता क्रम लीएं द्रव्य दीजिए है । बहुरि तहां अन्त कृष्टिवि जो दीया द्रव्य तातै अपूर्व कृष्टिवि अनंतगुणा द्रव्य दीजिए है। जातै यहु कृष्टि इसही द्रव्यकरि नवीन निपजै है। बहुरि यात याके अनंतरवर्ती जो पूर्वकृष्टि तिसविर्षे अनंतगुणा घटता द्रव्य दीजिए है । तातै उपरि अनंतवां भागरूप विशेष घटता क्रम लीए द्रव्य यावत् अपूर्व कृष्टि प्राप्त न होइ तावत् दीजिए है। ऐसे ही अनुक्रम लीए बंधकी उत्कृष्ट कृष्टि पर्यंत बंध द्रव्य देनेका विधान जानना । नवीन बंध द्रव्य करि करी अपूर्व कृष्टि भी अनंत हैं । ऐसें बंध कृष्टिनिका स्वरूप कह्या है ।।५३३॥ विशेष-चारों प्रथम संग्रह कृष्टियोंके नीचे और ऊपर असंख्यातवें भागको छोड़ कर शेष समस्त मध्यम कृष्टियोंरूपसे परिणमन करनेवाले नवकबन्धका अनुभाग पूर्व कृष्टिरूप भी परिणमता है और अपूर्व कृष्टिस्वरूप भी परिणमता है। उसमेंसे जो प्रदेश पुज पूर्व कृष्टियोंको प्राप्त होता है वह नवकबन्धरूप समयबद्धके अनन्त- भागप्रमाण होता है। शेष अनन्त बहभाग प्रमाण प्रदेश पुज अपूर्व कृष्टियोंको प्राप्त होता है। इसलिये नवकबन्धरूप समयप्रबद्धके अनन्त बहुभागको पृथक रखकर जो शेष एक भागप्रमाण प्रदेशपुंज अवशिष्ट रहा उसे पूर्व कृष्टियोंके सम्बन्धसे बन्धको प्राप्त होनेवाली जघन्य कृष्टिसे लेकर सिंचन करता हुआ उनमें जो बन्धरूप जघन्य कृष्टि है उसमें बहुत प्रदेशपुजका निक्षेपण करता है। नवक बन्धरूप समयप्रबद्धके अनन्तवें भागको पूर्व कृष्टियोंके प्रमाणसे भाजित करनेपर जो एक खण्डप्रमाण द्रव्य प्राप्त हो उसमें अनन्तवें भागप्रमाण द्रव्यके और मिलाने पर जो द्रध्य प्राप्त हो उसे विवक्षित जघन्य कृष्टिरूपसे सिंचित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उससे आगे दूसरी कृष्टिको विशेषहीन द्रव्य देता है। यहाँ विशेषका प्रमाण अनन्तवाँ भाग है। तात्पर्य यह है कि बन्धरूप जघन्य कृष्टिमें जितना द्रव्य दिया है उसे निषेक भागहारसे भाजित करने पर जो द्रव्य प्राप्त हो उतना कम देता है । इसी प्रकार अन्तिम पूर्व कृष्टिके प्राप्त होने तक तृतीयादि कृष्टियोंको विशेष हीन विशेष हीन द्रव्य देता है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमलोंको उल्लंघन अपूर्व कृप्टि प्राप्त होती है उसके पूर्वतक पूर्व कृष्टियोंमें उक्त द्रव्यका निक्षेपण करता है। यहां जो पूर्व कृष्टियोंको रच नाकी विधि कही सो दो पूर्व कृष्टियोंके अन्तराल में जो अपूर्व कृष्टियोंकी रचना होती है उसमें अनन्तगुणे द्रव्यको देता है। उसके आगे नवकबन्धके निपजनेवाली अपूर्व कृष्टियोंमें किस क्रमसे द्रव्यका विभाग होता है इसे जयधवला टीकासे जानना चाहिये । १. तत्थ जहणियाए किट्टीए बज्झमाणियाए बहुअं। विदियाये किट्टीए विसेसहीणमणंतभागेण । तदियाए विसेसहीणभणंतमागेण । चउत्थीए विसेसहीणं । एवमणंतरोपणिधाए ताव विसेसहीणं जाव अपव्वकिट्टिमपत्तो त्ति । अपुन्वाए किट्टीए अणंतगुणं । अपुव्वादो किट्टीदो जा अणंतरकिट्टी तत्थ अणंतगुणहीणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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