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________________ ४०६ क्षपणासार लोभादितः क्रोधांतं च स्वस्थानांतरमनंतगुणितक्रमं । ततो बादरसंग्रहकृष्ट रंतरमनंतगुणितक्रमं ॥ ४९९ ॥ स० चं०- लोभतैं लगाय क्रोध पर्यन्त स्वस्थान अन्तर है सो अनन्तगुणा क्रम लीएं है । बहुरि ति स्वस्थान अन्तरतै बादर संग्रह कृष्टि तिनका अन्तर अनन्तगुणा क्रम लाएं है । सोई कहिए है बादर संग्रह कृष्टि है तहां एक एक संग्रह कृष्टिविषै अन्तर कृष्टि सिद्धि राशिके अनन्तवें भागमात्र है । बहुरि तिनके अन्तराल एक घाटि कृष्टि प्रमाण हैं, जातैं दोय वीचि अन्तराल एक होइ, तीन बीच दोय होंइ ऐसें विवक्षित प्रमाणविषै अन्तराल एक घाटि तिस प्रमाणमात्र हो हैं । बहुरि इहां अन्तरकी उत्पत्तिकों कारण जे गुणकार तिनकौं अन्तर कहिए । जातैं कारणविषै कार्यका उपचार हो है । बहुरि इहां कृष्टिनिविषै गुणकार हीका नाम अन्तर भया, तातैं तिनका नाम कृष्टयन्तर कहिए । बहुरि नोचली संग्रह कृष्टि अर ऊपरली संग्रह कृष्टिनिविषै ग्यारह अन्तर हो हैं, जातें संग्रह कृष्टि बारहविषै एक घाटि अन्तरनिका प्रमाण हो है सो इनका नाम संग्रह कृष्टयन्तर कहिए । भावार्थ यहु-जेते अन्तराल होंइ तितनीवार गुणकार होइ तहां स्वस्थान गुणकारनिका नाम कृष्टयन्तर है । परस्थान गुणकारनिका नाम संग्रह कृष्टयन्तर है । एक ही संग्रह कृष्टिविषै नीचली अन्तर कृष्टितैं ऊपरली अन्तर कृष्टिविषै गुणकार होइ ताकौं तौ स्वस्थान गुणकार कहिए है । बहुरि जहां नीचली संग्रह कृष्टिकी अन्तकी अन्तर कृष्टितै अन्य संग्रह कृष्टिकी आदि अन्तर कृष्टिविषै जो गुणकार होइ ताकों परस्थान गुणकार कहिए है । ऐसें संज्ञा कहि कृष्टयन्तर वा संग्रह कृष्टिनिका अल्पबहुत्व कहिए है । तहां निस्संदेह होनेकौं अंक संदृष्टि करि भी कथन करिए है - Jain Education International हां अनन्तकी दृष्टि दोय अर एक संग्रह कृष्टिविषै अन्तर कृष्टिनिके प्रमाणकी संदृष्टि च्यारि जाननी । तहां प्रथम लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी जघन्य कृष्टि स्थापि ताकौं तिस अनन्त गुणकारकरि ताकी द्वित्तीय कृष्टि होइ । तिस गुणकारका नाम जघन्य कृष्टियन्तर है ताकी दृष्टि दोयका अंक, बहुरि द्वितीय कृष्टिकों जिस गुणकार करि गुण तृतीय कृष्टि होइ तिस गुणकारका नाम द्वितीय कृष्टयन्तर है । सो यहु जघन्य कृष्टयन्तरतें अनन्तगुणा है । ताकी संदृष्टि च्यारिका अंक, ऐसे क्रमतैं तृतीयादि कृष्टयन्तर क्रमतें अनन्तगुणे होंइ, जिस गुणकार रिद्विरम कृष्टिक गुणें अन्त कृष्टि होइ सो अनन्तका गुणकार द्विचरम गुणकारतें अनन्तगुणा है, ताकी संदृष्टि आठका अंक, बहुरि इस प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्त कृष्टिकौं जिस गुणकार करि द्वितीय कृष्टी प्रथम कृष्टि होइ परस्थान गुणकार है । तातैं याकों छोडि द्वितीय संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टिकों जिस गुणकार करि गुण ताकी द्वितीय कृष्टि होइ सो प्रथम गुणकार पूर्वोक्त अन्तका स्वस्थान गुणकारतें अनन्तगुणा है । ताकी संदृष्टि सोलहका अंक ऐसे हीं बीचि बीचि परस्थान गुणकार छोडि एक एक कृष्टि प्रति गुणकारका प्रमाण अनन्तगुणा जानना । सो कृष्टिनिका जेता प्रमाण तिनमें एक घाटि तो अन्तराल पाइए अर तहां ग्यारह परस्थान गुणकार पाइए अर एक जघन्य गुणकार हो है । ऐसें तेरह घटाएं अवशेष जेता प्रमाण तितनी वार जघन्य Sarat अन्तर गुण जो गुणकार भया तिसकरि क्रोधकी तृतीय संग्रह कृष्टिकी द्विचरम कृष्ट गुण ताकी अन्तर कृष्टि हो है । अंक संदृष्टि करि अठतालीस कृष्टिनिविषै तेरह घटाएं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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