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________________ ४०४ क्षपणासरि पहलेही संक्रमण करि क्षय होइ, तातै एक लोभ हीकी तीन संग्रह कृष्टि हो हैं। तहां जेती संग्रह कृष्टि होइ तिनहीविर्षे कृष्टि प्रमाणका विभाग यथासंभव जानना ।।४९७|| संगहगे एक्केक्के अंतरकिट्टी हवदि हु अणंता । लोभादि अणंतगुणा कोहादि अणंतगुणहीणा' ।।४९८।। संग्रहके एकैकस्मिन् अंतरक्रष्टिः भवति हि अनंता। लोभादौ अनंतगुणा क्रोधादौ अनंतगुणहीना ॥४९८॥ स० चं-एक एक संग्रह कृष्टि विर्षे अन्तर कृष्टि अनंत पाइए हैं जातें अनंती कृष्टिनिके समूहका ही नाम संग्रह कृष्टि है। बहुरि तहां कृष्टिनिविष लोभते लगाय क्रम” अनंतगुणा [ अर क्रोधर्ते लगाय क्रमतें अनंतगुणा घटता अनुभाग पाइए है । सोई कहिए है____ लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि विर्षे जो जघन्य कृष्टि है सो स्तोक है। सर्वतें मंद अनुभाग सहित है। तातै ताकी दूसरी कृष्टि अनंतगुणो है। अभव्यराशित अनंतगुणा वा सिद्ध राशिके अनंतवे भागमात्र अनंतप्रमाण लीएं जो गुणकार तिस करि जघन्य कृष्टिके अनुभागको गुणे द्वितीय कृष्टिका अनुभाग हो है। ऐसे ही आगे भी जानना। बहुरि दूसरी कृष्टितै तीसरी कृष्टि अनंतगुणी है। ऐसे ही प्रथम संग्रह कृष्टिकी अंत कृष्टि पर्यंत अनुक्रम जानना। बहुरि तिस प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्त कृष्टितै द्वितीय संग्रह कष्टिको जघन्य कृष्टि अनंतगुणी है, सो इहां गुणकारका प्रमाण अन्य प्रकार हो है, जातें इहां परस्थान गुणकार भया सो सर्व स्वस्थान गुणकारनितै यहु अनंतगुणा है, सो ऐसे गुणकारका भेद ही करि संग्रह कृष्टिनिका भेद भया है। कृष्टिनिका अनुभाग विर्षे गुणकारका प्रमाण यावत् एक प्रकार बंधता भया तावत् सो ही संग्रह कृष्टि कही । बहुरि जहां नीचली कृष्टि” ऊपरली कृष्टिका गुणकार अन्य प्रकार भया तहांतै अन्य संग्रह कृष्टि कही है। सो इस कथनकौं आगें व्यक्त करि दिखाइऐगा। बहुरि द्वितीय कृष्टिकी जघन्य कृष्टिनै ताकी द्वितीय कृष्टि अनंतगुणी है । ऐसें अन्त कृष्टि पर्यंत क्रम जानना । बहुरि द्वितीय कृष्टिकी अन्त कृष्टितै तृतीय कृष्टिकी जघन्य कृष्टि अनंतगुणी हैं। इहां परस्थान गुणकार जानना। तातै ताकी द्वितीयादि अंत पर्यंत कृष्टि क्रमतें अनंतगुणी है। ऐसे लोभ की तीन संग्रह कृष्टि भईं। बहुरि लोभको तृतीय संग्रह कृष्टिकी अन्त कृष्टिनै मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है । बहुरि लोभवत् क्रम जानना । बहुरि मायाकी तृतीय संग्रह कृष्टिकी अन्त कृष्टिनै मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है । बहुरि पूर्वोक्त प्रकार क्रम जानना । बहुरि मानकी तृतीय संग्रह कृष्टिकी अन्त कृष्टितै क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है। बहुरि पूर्वोक्त प्रकार क्रम जानना । बहुरि क्रोधको तृतीय संग्रह कृष्टिकी अन्त कृष्टिनै अपूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणा अनन्तगुणी है, जातें कृष्टिका अनुभागते स्पर्धकका अनुभाग अनन्तगुणापनेकौं लीए है । इहां गुणकार अनुभाग अपेक्षा ही जानना ॥४९८॥ विशेष—यहाँ क्रोधादिकसे प्रत्येककी संग्रह कृष्टियां तीन तीन रचनी चाहिये। इस प्रकार एक-एक कषायकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियाँ होती हैं । इस प्रकार कुल संग्रह कृष्टियाँ बारह हो जाती हैं । उनमेंसे सबसे नीचे लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि होती है। उसकी अवान्तर कृष्टियाँ अनन्त होती हैं । उसके ऊपर लोभकी दूसरी संग्रह कृष्टि होती है। उसकी भी अवान्तर कृष्टियाँ १. धवला पु० ६, पृ० ३७५-३७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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