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________________ अन्तरकरणका निर्देश ३५७ विशेष--भाववेदकी अपेक्षा तीनों वेदोंमेंसे किसी एक वेदसे और चार संज्वलन कषायोंमें से किसी एक कषायसे यह जोव क्षपकश्रेणिपर चढ़नेका अधिकारी है। आगममें भावभेदकी अपेक्षा ही गुणस्थान प्ररूपणा हुई है। कर्मशास्त्रमें बन्ध, उदय और सत्त्वकी प्ररूपणा भी इसी अपेक्षासे को गई है। द्रव्यवेदको आगममें स्थान उत्तरकालीन टीकादि ग्रन्थों में ही दृष्टिगोचर होता है। वस्तुतः जोवस्थानमें जीवोंकी मार्गणा, गुणस्थान और जीवसमासरूप जो विविध अवस्थाएं होती हैं उन्हींको प्ररूपणा की गई है। द्रव्यवेद शरीरसम्बन्धी आंगोपांगोंके अन्तर्गत आता है और आंगोपांग पुद्गलविपाकी आंगोपांग नामकर्मके उदयको निमित्त कर प्राप्त होता है, इसलिये द्रव्यवेदकी जीव भेदोंमें गणना होना सम्भव ही नहीं है। (१) वेदोंका अभाव नौवें गुणस्थानमें हो जाता है, पर आंगोपांग शरीरस्थितिके अन्त तक १४वें गुणस्थान तक और आंगोपांग नामकर्मके उदयकी अपेक्षा १३वें गणस्थान तक देखे जाते हैं। (२) एकेन्द्रिय जीवोंके आंगोपांग नहीं होने पर नपंसकवेद होता है। तथा (३) आगममें मनुष्यपदसे पूरुषवेद और नपुंसकवेदवाले मनुष्य जीव लिये गये हैं तथा मनुष्यिनी पदसे स्त्रीवेदके उदयवाले जीव ही लिये गये हैं और वेदनोकषाय जीवविपाकी कर्म है, वेदमार्गणामें पुद्गलविपाकी आंगोपांगका ग्रहण नहीं हुआ है। इन सब हेतुओंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि आगममें सर्वत्र नोआगम भावनिक्षेपके अन्तर्गत भाववेद ही लिये गये हैं, द्रव्यवेद नहीं, क्योंकि जीवोंको द्रव्यवेदी कहना यह उपचरित कथन है परमार्थरूप नहीं । शेष कथन सुगम है। उक्कीरिदं दु दव्वं संते पढमहिदिम्हि संछुहदि । बंधे वि य आबाधमदिच्छिय उक्कड्डदे णियमा ॥४३५।। अपकषितं तु द्रव्यं सत्त्वे प्रथमस्थितौ संस्थापयति । बंधेऽपि च आबाधामतिकम्योत्कर्षति नियमात् ॥४३५॥ स० चं०-तिनि अतररूप निषेकनिके द्रव्यकौं अंतरकरण कालका प्रथम समयविर्षे ग्रह्या सो प्रथम फालि यात असंख्यातगुणा दूसरे समय ग्रह्या सो द्वितीय फालि ऐसैं असंख्यातगुणा क्रम लोएं अंतर्मुहुर्तमात्र फालिनिकरि सर्व द्रव्य अन्य निषेकनिविर्षे निक्षेपण कर है। अंतररूप निषेकनिवि नाही निक्षेपण करै है । कहां निक्षेपण करिए सो कहिए है बंध उदय रहित वा केवल बंध सहित उदय रहित जे प्रकृति तिनिकी प्रथम स्थिति समय घाटि आवलीमात्र कहो. तिनके दव्यकौं अपकर्षण करि उदयरूप अन्य प्रकृतिनिकी प्रथम स्थिति विर्षे संक्रमणरूप करि निक्षेपण करै है। अर बंध उदय रहित प्रकृतिनिका द्रव्यकौं अपनी द्वितीय स्थितिवि नाहीं निक्षेपण करै है जातै बंध विना उत्कर्षण होना संभवै नाहीं। बहुरि केवल बंध सहित प्रकृतिनिका द्रव्यकौं उत्कर्षण करि अपना द्वितीयस्थितिविष निक्षेपण करै हैं वा बंधती जो अन्य प्रकृति ताकी द्वितीय स्थितिविर्षे संक्रमणरूप करि निक्षेपण करै है। बहुरि जे प्रकृति केवल १. जाओ अंतरद्विदीओ उक्कीरंति तासि पदेसग्गमुक्कीरमाणियासु ट्ठिदीसु ण दिज्जदि । जासि पयडीणं पढमट्ठिदी अत्थि तिस्से पढमट्ठिदीए जाओ संपहि द्विदीओ उक्कोरंति तमुक्कीरमाणगं पदेसग्गं संछहदि । अथ जाओ बझंति पयडीओ तासिमाबाहामधिच्छियूण जा जहणिया णिसेगदिदी तमादि कादण बज्झमाणियासु द्विदीसु उक्कड्डिज्जदे । क० चु० पृ० ७५२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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