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________________ ३५४ क्षपणासार असंख्यातवां भागमात्र स्थितिबंध होइ ताकों होत संतें तहां असंख्यात समयप्रबद्धनिकी उदीरणा हो है। इहांतें पहलै अपकर्षण कीया द्रव्यकौं उदयावलीवि देनेके अथि असंख्यात लोकप्रमाण भागहार संभवै था, तहां समयप्रबद्धके असंख्यातवां भागमात्र उदीरणा द्रव्य था अब यहां पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण भागहार होनेते असंख्यात समयप्रवद्धमात्र उदीरणा द्रव्य भया ।।४२८।। आगे क्षपणाधिकारका प्रारंभ हो है ठिदिबंधसहस्सगदे अट्ठकसायाण होदि संकमगो। ठिदिखंडपुधत्तण य तट्ठिदिसंतं तु आवलियविद्धं ॥४२९॥ स्थितिबंधसहस्रगते अष्टकषायाणां भवति संक्रमकः । स्थितिखंडपृथक्त्वेन च तत्स्थितिसत्त्वं तु आवलिकविद्धं ॥४२९॥ स० चं-असंख्यात समयबद्धमात्र उदीरणा होनेत लगाय संख्यात हजार स्थितिकांडक व्यतीत भएं अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभरूप आठ कषायनिका संक्रम होइ है। इहां संक्रमणका अर्थ यहु-क्षपणाका प्रारंभ हो है। ए अति अप्रशस्त थे तातें पहले इनकी क्षपणा संभव है । सो इनका जो द्रव्य सो कितना एक क्षपणाका प्रारंभका प्रथम समयविर्षे कितना एक दूसरा समयविर्षे ऐसे समय समय प्रति एक-एक फालिका संक्रमण होते अन्तमुहूर्तके जेते समय तितनी फालि करि प्रथम कांडकका संक्रमण हो है । ऐसेंही द्वितीय कांडकका संक्रमण हो है। ऐसे क्रमकरि संख्यात हजार स्थितिकांडकनिकरि आठ कषायनिके द्रव्यका च्यारि संज्वलन कषाय अर पुरुषवेदविर्षे संक्रमण हो है। ऐसे ए परमुखकरि नष्ट हो हैं। अन्य प्रकृतिरूप होनेकरि जाका नाश होइ सो परमुख करि नष्ट कहिए। ऐसैं मोह राजाकी सेनाके नायक अष्ट कषाय तिनका अंत कांडकका नाश होते अवशेष स्थितिसत्व काल अपेक्षा आवली मात्र रहै है । अर निषेक अपेक्षा समय घाटि आवली मात्र रहै है। जातें अंत कांडक घातके समयविषै प्रथम निषेकका स्वमुख उदय युक्त जो कोई संज्वलन तीहिविषै संक्रम होइ उदय हो है। बहुरि उदयावलीविषै प्राप्त निषेकका कांडकघात न होइ ताते समय घाटि आवलीमात्र निषेक अंत फालिकी साथि नाहीं विनसै है ॥४२९॥ ठिदिबंधपुधत्तगदे सोलसपयडीण होदि संकमगो । ठिदिखंडपुत्तण य तट्ठिदिसतं तु आवलिपविटुं ॥४३०।। स्थितिबंधपृथक्त्वगते षोडशप्रकृतीनां भवति संक्रमकः । स्थितिखंडपृथक्त्वेन च तत्स्थितिसत्त्वं तु आवलिप्रविष्टम् ।।४३०॥ १. तदो संखेज्जेसु टिदिखंडसहस्सेसु गदेसु अट्ठण्हं कसायाणं संकामगो। तदो अट्ठ कसाया ट्ठिदिखंडयपुधत्तेण संकामिति । अट्ठण्हं कसायाणमपच्छिमट्ठिदिखंडए उक्किण्णे तेसिं संतकम्ममावलियपवि ट्ठ सेसं । क० चु० पृ० ७५१ । २. तदो टिठदिखंडयपुतण णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणं णिरयगदि-तिरिक्खगदिपाओग्गणामाणं, संतकम्मस्स संकामगो । तदो दिदिखंडयपुधत्तेण अपच्छिमे विदिखंडए उक्किणे एदेसि सोलसण्हं कम्माणं ट्ठिदिसंतकम्ममावलियम्भंतरं सेसं । क. चु० पृ० ७५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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