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________________ ३४० क्षेपणासार संकामेदुक्कड्डदि जे अंसे ते अवट्टिदा होंति । आवलियं से काले तेण परं होंति भजियव्वा ॥ ४०२ ॥ संक्रामे तु उत्कृष्यंते ये अंशास्ते अवस्थिता भवंति । आवलिकां स्वे काले तेन परं भवंति भजितव्याः ||४०२ || स० चं० - संक्रमणविषै जे प्रकृतिनिके परमाणू उत्कर्षणरूप करिए है ते अपने कालविषै आवली पर्यन्त तो अवस्थित ही रहें । तातैं परे भजनीय हो हैं, अवस्थित भी रहें अर स्थित्यादिक की वृद्धि हानि आदिरूप भी होंइ ॥ ४०२ ॥ | विशेष - जिन कर्मप्रदेशोंका संक्रमण अथवा उत्कर्षण करता है वे एक आवलि काल तक तदवस्थ रहते हैं । उनमें एक आवलि काल तक अन्य कोई क्रिया नहीं होती । उसके बाद वे कर्मप्रदेश वृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे भजनीय हैं । उनमें अपनी-अपनी शक्ति स्थिति के अनुसार अन्य क्रिया हो सकती है यह उक्त गाथा सूत्रका भाव है। rasia जे अंसे से काले ते च होंति भजियव्वा । astragr हाणी संकमे उद || ४०३ || Jain Education International अपकृष्यंते ये अंशाः स्वे काले ते च भवंति भजितव्याः । वृद्ध अवस्थाने हानौ संक्रमे उदये ||४०३ || स० चं० - जे प्रकृतिनिके परमाणू अपकर्षण करिए है ते अपने कालविषै भजनीय हो हैं स्थित्यादिककी वृद्धि वा अवस्थान वा हानि अर संक्रमण अर उदय इनरूप होंइ भी अर न भी sis, किछू नियम नाहीं ॥ ४०३ || विशेष – जिन कर्म प्रदेशोंका अपकर्षण करता है, तदनन्तर समय में वृद्धि, अवस्थान, हानि, संक्रम और उदयकी अपेक्षा वे भजनीय हैं । अर्थात् अपकर्षण होनेके बाद अगले समय में उन कर्मप्रदेशोंका उत्कर्षण हो सकता है, अवस्थान हो सकता है, पुनः अपकर्षण हो सकता है, संक्रम हो सकता है और उदय भी हो सकता है। अपकर्षणके दूसरे समय में क्रियान्तर होने में कोई बाधा नहीं है । एक्कं च ठिदिविसेसं तु असंखेज्जेस ठिदिविसेसेसु । दि हरस्सेदि च तहाणुभागे सुते ||४०४ || एकं च स्थितिविशेषं तु असंख्येयेषु स्थितिविषेषु । वर्त्यते रहस्पते वा तथानुभागेष्वनंतेषु ॥४०४ ॥ स० चं० - एक स्थितिविशेष जो एक निषेकका द्रव्य सो असंख्यात निषेकनिविषै वतें है निक्षेपण करिए है तैसें ही अनंत अनुभागनिविषै भी एक स्पर्धकका द्रव्य अनन्त स्पर्धकनिविषै १. का० पा०, गा० १५३ । २. का० प० गा० १५४ । ३. का० पा०, गा० १५६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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