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________________ क्षपकारोहकको योग्यताका निर्देश बहुरि प्रश्न--पूर्वबद्ध कर्म हैं ते सत्त्वरूप कैसैं हैं ? ताका उत्तर-सातमोहनी अर नरक तिर्यंच देव आयु इन दश विना सर्व प्रकृतिनिका सत्त्व होइ । तहाँ आहारक आहारकांगोपांग तीर्थकर ए भजनीय हैं। कोईक न होइ । बहुरि स्थितिसत्त्व मनुष्यायु विना तिन प्रकृतिनिका अंतःकोटाकोटी सागरप्रमाण है अर तिनविष प्रशस्त प्रकृतिनिका गुड खंड शर्करा अमृतरूप चतु:स्थानक, अप्रशस्त प्रकृतिनिका दारु लता वा निब कांजीररूप द्विस्थानक अनुभाग सत्त्व है। अर तिनका प्रदेशसत्त्व अजघन्य वा अनुत्कृष्ट संभवै है। जघन्य उत्कृष्ट कर्मपरमाणूनिका समूह इहाँ न पाइए है। बहुरि प्रश्न--जो नवीन कर्म किसा अंशकरि बंधै है ? ताका उत्तर-ज्ञानावरण पाँच ५ दर्शनावरणको स्त्यानगृद्धित्रिक विना छह ६ सातावेदनोय १ संज्वलनचतुष्क ४ पुरुषवेद १ हास्य १ रति १ भय १ जुगुप्सा. १ उच्चगोत्र १ अंतराय पाँच ५ ऐसें सताईस अर नाम कर्मविषै देवगति १ पंचेंद्रीजाति १ वैक्रियिक तेजस कार्माणशरीर ३ समचतुरस्र संस्थान १ वैक्रियिकअंगोपांग १ प्रशस्त वर्णादिक च्यारि ४ देवगत्यानुपूर्वी १ अगुरुलघु १ उपघात १ परघात १ उच्छ्वास १ प्रशस्त विहायोगति १ त्रस १ बादर १ पर्याप्त १ प्रत्येक १ स्थिर १ शुभ १ सुभग १ सुस्वर १ आदेय १ यशस्कीति १ निर्माण १ ए अठाईस वा कोईकै तीर्थंकर सहित गुणतीस वा कोईकै आहारकादिकसहित तीस वा कोईकै आहारकद्विक तीर्थंकर सहित इकतीस प्रकृति बँधे है। अर तिनि प्रकृतिनिका स्थितिसत्त्वतै संख्यातगुणा घटता अंतःकोटाकोटी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध हो है। अर तिनिविर्षे अप्रशस्त प्रकृतिनिका समय समय अनन्तगुणा घटता क्रम लीए द्विस्थानक अर प्रशस्त प्रकृतिनिका समय-समय अनंतगुणा बँधता क्रम लीए चतुःस्थानिक अनुभाग बन्ध हो है । अर तिनिका अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध हो है । इहाँ जघन्य वा उत्कृष्ट समयप्रबद्ध नाहीं बन्धे है। तहाँ विशेष जो प्रचला निद्रा हास्य रति भय जुगुप्सा देवगति देवानुपूर्वी वैक्रियिकद्विक आहारकद्विक प्रथम संस्थान प्रशस्त विहायोगति सुभग सुस्वर आदेय तीर्थंकर इनि प्रकृतिनिका किसी प्रकार करि उत्कृष्ट प्रदेश बन्ध भी हो है। बहुरि प्रश्न-उदयावली प्रति कर्म कैसे प्रवेश करै है ? ताका उत्तर-मूलप्रकृति तौ सर्व उदयरूप ही होइ खिरै हैं, उत्तर प्रकृति कोई उदयरूप होइ निर्जरै है, कोई विना ही उदय दिये निर्जरै है। विशेष--उदयावलिमें कौन कर्म प्रवेश करते हैं ? इस प्रश्नका समाधान यह है कि वहाँ जिन कर्मोंका सत्त्व है वे चाहे उदयरूप हों चाहे अनुदयरूप हों वे सब उदयावलिमें प्रवेश करते हैं। यहाँ कौन प्रकृतियाँ उदयरूप होकर खिरती हैं और कौन प्रकृतियाँ स्तिवुक संक्रम होकर खिरती हैं यह पृच्छा नहीं की गई है। मात्र यहाँ उदयावलिमें कौन प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं यह पृच्छा की गई है सो इसका उत्तर इतना ही है कि वहाँ सत्त्वरूप मूल और उत्तर जितनी भी प्रकृतियाँ हैं वे सब उदयावलिमें प्रवेश करती हैं। १. जयध० ता० मु० पृ० १९४४ । २. जयध० ता० मु० पृ० १९४४ । ३. मूलपयडीओ सव्वाओ पविसंति । उत्तरपयडीओ वि जाओ अत्थि ताओ पविसंति । ता० मु०, पु० १९४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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