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________________ २७० लब्धिसारं निक्षेपण कीया द्रव्य असंख्यातगुणा है तातें ऊपरि नीचे सर्व निषेकनिः इहां प्रथम समयविष करी गुणश्रेणिका शीर्ष जिस समयविष उदय होइ तिस समयविष ही उत्कृष्ट द्रव्यका उदय है ॥३०५।। विशेष-पहले अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय तक मोहनीयको छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि कर्मों का गुणश्रेणि निक्षेप उदयावलिके बाहर गलित शेष होता रहा । किन्तु यहाँ उपशान्तकषाय गुणस्थानमें वह उदय समयसे लेकर होने लगता है । तथा यहाँ अवस्थित परिणाम होनेसे गुणश्रेणि रचना और उसमें प्रति समय होनेवाला प्रदेश पुज का निक्षेप अवस्थितरूपसे ही होता है। यह क्रम उपशान्तकषायके अन्तिम समय तक चलता रहता है। एक बात और है और वह यह कि उपशान्तकषायके प्रथम समयमें जो गुणश्रेणि शीर्षकी रचना हुई उसकी अग्र स्थितिका उदय होनेपर ज्ञानावरणादि कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है, क्योंकि यहाँ पर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर संचित हुई गुणश्रेणि गोपुच्छाओंका एक साथ उदय देखा जाता है। यद्यपि इसके आगे भी प्रत्येक समयमें उतनी ही गोपुच्छाएँ एक साथ उपलब्ध होती हैं, किन्तु आगे प्रकृत गोपुच्छाओंकी अपेक्षा प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर एक-एक गोपुच्छा विशेषकी हानि देखी जाती है, इसलिये उपशान्तकषायके प्रथम समयमें किये गये गुणश्रेणि शीर्षका जिस समय उदय होता है उसी समय उत्कृष्ट प्रदेश उदय होता है ऐसा समझना चाहिये। अथोपशान्तकषायेण एकान्नषष्टयुदयप्रकृत्यनुभागविभागप्रदर्शनार्थ गाथाद्वयमाह णामधुवोदयबारस सुभगति गोदेक्क विग्धपणगं च । केवल णिदाजुयलं चेदे परिणामपच्चया होंति ॥३०६॥ नामध्र वोदयद्वादश सुभगत्रि गोत्रकं विघ्नपंचकं च । केवलं निद्रायुगलं ते परिणामप्रत्यया भवति ॥३०६॥ सं०टी०-उपशान्तकषाये नामकर्मणो ध्रुवोदयप्रकृतयस्तैजसकार्मणशरीरवर्णगन्धरसस्पर्श स्थिरास्थिरशुभाशुभागुरुलघुनिर्माणनामानो द्वादश, सुभगादेययशस्कीर्तयः उच्चैर्गोत्रं पञ्चान्तरायप्रकृतयः केवलज्ञानावरणीयं केवलदर्शनावरणीयं निद्रा प्रचला चेति पञ्चविंशतिप्रकृतयः परिणामप्रत्ययाः, आत्मनो विशुद्धिसंक्लेशपरिणामहानिवृद्धयनुसारेण एतत्प्रकृत्यनुभागस्य हानिवृद्धिसद्भावात् ।।३०६।। अब ५९ प्रकृतियोंके उदयके विषयमें खुलासा-- स. चं० --उपशांतकषायविषै जे उदय प्रकृति गुणसठि पाइए है तिसविरे तैजस कार्माण शरीर २ वर्णादि ४ स्थिर १ अस्थिर १ शुभ १ अशुभ १ अगुरुलघु निर्माण २ ए नाम कर्मकी ध्रु वोदयी बारह प्रकृति अर सुभग आदेय यशस्कीर्ति ए तीन अर उच्चगोत्र अर पांच अंतराय अर केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरण अर निद्रा प्रचला ए पचीस प्रकृति परिणामप्रत्यय हैं। इनका उदय होनेके समयविषै आत्माके विशुद्धि संक्लेश परिणाम हानि वृद्धि लीएँ जैसे पाइए तैसें ही हानि वृद्धि लीए इनके अनुभागका तहाँ उदय होइ । वर्तमान परिणामके निमित्ततें इनका अनुभाग उत्कर्षण अपकर्षणादिरूप होइ उदय हो है ॥३०६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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