SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ लब्धिसार मिलाये कालतैं उपशान्तकषायके कालका संख्यातवाँ भागमात्र अधिक जानना । तहाँ आयु विना सातकर्मनिके उदयावलीत बाह्य निषेकनिका द्रव्यकों अपकर्षण करि पूर्वोक्त प्रकार उदयावलीविषै अरतात ऊपर गुणश्रेणि आयामविषै अर तातैं उपरितन स्थितिविषै दीजिए है । बहुरि नपुंसक वेदादिकका गुणसंक्रम लीए भी इहाँ ही प्रारम्भ भया । जिनिका बन्ध पाइए है तिनिका गुणसंक्रम है नाहीं । बहुरि ऐसे ही अपूर्वकरणके द्वितीयादि समयनिविषै भी स्थितिकाण्डकादि विधान जानना || २२४ ॥ विशेष – उपशमश्र णिपर आरोहण करनेवाला जीव अपूर्वकरणके प्रथमसमय में उपरिम शेष स्थितियोंके प्रदेश पुंजका अपकर्षण कर उदयावलिके बाहर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण गुण णिरचना करता है, जो अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायके कालसे कुछ अधिक है । जयधवलामें इस आयामको अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे कुछ अधिक बतलाया है सो जानकर समझ लेना चाहिए । यहाँपर नहीं बँधनेवाली अप्रशस्त नपुंसकवेद आदि प्रकृतियों के गुणसंक्रमको भी प्रारम्भ करता है । इसी प्रकार अपूर्वकरणके दूसरे समय में भी जानना चाहिए । तब प्रथम समय में प्रारम्भ हुआ वही स्थितिकाण्डक, वही स्थितिबन्ध और वही अनुभागकाण्डक भी होता है । इतना विशेष है कि यहाँ स्थित गुणश्र णि गलितावशेष होती है । इस प्रकार हजारों अनुभागकाण्डकघातोंके समाप्त होनेपर यहींपर उनके साथ प्रथम स्थितिकाण्डक, स्थितिबन्धकाल और अन्य अनुभागकाण्डक समाप्त होता है । अथापूर्वकरणे वन्धोदयव्युच्छित्तिविभागप्रदर्शनार्थमिदमाह - पढमे छट्ठे चरिमे बंधे दुग तीस चदुर वोच्छिण्णा । छण्णोकसायउदयो अपुव्वचरिमम्हि वोच्छिण्णा' ।। २२५ ।। प्रथमे षट्के चरमे बंधे द्विकं त्रिंशत् चतस्रो व्युच्छिन्नाः । torturer अपूर्वचरमे व्युच्छिनाः ॥ २२५ ॥ सं० टी०-अपूर्वकरणकालस्य सप्तभागेषु प्रथमभागे द्वयोनिद्राप्रचलयोर्बन्धो व्युच्छिन्नः । षष्ठे भागे तीर्थ करत्वादीनां त्रिंशत्प्रकृतीनां बन्धो व्युच्छिन्नः । सप्तमभागचरमसमये हास्यादिचतुः प्रकृतीनां बन्धो व्युच्छिन्नः । हास्यादिषण्णोकषायाणामुदयः अपूर्वकरणचरमसमये व्युच्छिन्नः ॥ २२५ ॥ अपूर्वकरणमें बन्धव्युच्छित्तिको प्राप्त हुई प्रकृतियोंकी संख्याका निर्देश— सं० चं० - अपूर्वकरण के कालका सात भाग तहाँ प्रथम भागविषै निद्रा प्रचला दोय अर छठा भागविष तीर्थंकर आदि तीस अर सातवाँ भागविषै हास्यादि च्यारि ऐसें छत्तीस प्रकृति Jain Education International १. तदो द्विदिखंडयपुधत्तगदे णिद्दा पयलाणं बंधवोच्छेदो । तदो अंतोमुहुत्ते गदे परभवियणामागोदाणं बंधवोच्छेदो । तदो अंतोमुहुत्ते गदे परभवियणामागोदाणं बंधनोच्छेदो । अपुव्वकरणपविट्ठस्स जम्हि णिद्दापयलाओ वोच्छिण्णाओ सो कालो थोवो । परभवियणामाणं वोच्छिण्णकालो संखेज्जगुणो । अपुब्वकरणद्धा विसेसाहिया । तदो अपूवकरणद्धाए चरिमसमए द्विदिखंडयमणुभागखंडयं द्विदिबंधो च समगं णिट्टिदाणि । एदम्हि चेव समए हस्स-रइ-भय-दुगंछाणं बंधवोच्छेदो । हस्स- रइ अरइ - सोग-भय-दुगुच्छाणं एदेसि छन्ह कम्माणमुदयवोच्छेदो च । वही पृ० २२५-२२८ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy