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________________ दर्शनमोहनीयको उपशमन विधि १७५ श्रेण्यायामे निक्षिप्य तदेकभागं पुनरुदयावल्यां निक्षिपति । अतः कारणात्सम्यक्त्वप्रकृतिद्रव्यस्यासंख्येयाः समयप्रबद्धा उदयनिषेके निक्षिप्योदीर्यन्ते । पल्यस्य भागहारभूतासंख्येयरूपबाहुल्यमाहात्म्यात् यत्रासंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणाकरणं कथ्यते तत्र पल्यासंख्यातभाग एवापकृष्टद्रव्यस्य भागहारो नासंख्यातलोक इति वचनात अतः परमन्तमुहूर्तकाले गते दर्शमोहस्यान्तरं करोति ॥ २०९ ॥ अपूर्वकरण आदिमें कार्यविशेषका निर्देश बहुरि अनिवृत्तिकरण कालकौं संख्यातका भाग दीजिए तहां बहुभाग व्यतीत भएं अवशेष एकभाग रहै है तहां कार्य हो है सो कहैं है - सं० चं०-अपूर्वकरणका प्रथम समयविर्षे जो साधिक अपूर्व अनिवृत्तिका कालमात्र आयाम धरें गलितावशेष गुणश्रेणिका आरम्भ कीया था सौ अनिवृत्तिकरणका बहुभाग पर्यन्त प्रवर्ते है। तहां अपकर्षण कीया द्रव्यकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग देइ बहुभाग उपरितन स्थितिविर्षे दीजिए है। अवशेष एक भागकौं असंख्यातलोकका भाग देइ बहुभाग गुणश्रेणि आयामविष एकभाग उदयावलीविषै दीजिए है। सो इहां उदयावलीविर्षे दीया द्रव्य समयप्रबदके असंख्यातवें भागमात्र आवै है । अनिवृत्तिकरणकालका संख्यातवाँ भाग अवशेष रहैं सम्यक्त्वमोहनीका द्रव्यकौं अपकर्षण करि याकौं पल्यका असंख्यातवाँ भागका भाग देइ बहुभाग उपरितन स्थितिविर्षे देना। अवशेष एक भागकौं पल्यका असंख्यातवाँ भागका भाग देइ तहां बहुभाग गुणश्रेणि आयामविर्षे दीजिए है । एकभाग उदयावलीविर्षे दीजिए है। सो इहां उदयावलीविषै दीया जो उदीरणा द्रव्य सो असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण आवे हैं जातें ऐसा कह्या है जहाँ असंख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा होइ तहां भागहार पल्यका असंख्यातवाँ भागमात्र है । असंख्यात लोकप्रमाण नाही है । बहुरि यातै परे अन्तमुहूर्तकाल व्यतीत भएं दर्शनमोहका अन्तर करै है ।। २०९॥ ... _ विशेष—जो दर्शनमोहनीयकी उपशमना कर रहा है उसके सम्यक्त्वके असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है । इस सम्बन्धमें चूर्णिसूत्रमें बतलाया है कि दर्शनमोहनीय उपशामनासम्बन्धी अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग जानेपर सम्यक्त्वके असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है । जयधवलामें इस विषयपर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि पहले असंख्यातलोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार सब कर्मोंकी उदीरणा होती थी, किन्तु इस स्थानपर परिणामोंके माहात्म्यवश सम्यक्त्वके असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होने लगती है। इसी तथ्यको लब्धिसारकी टीकामें स्पष्ट किया गया है। बात यह है कि अपूर्वकरणके प्रथम समयसे जो गुणश्रेणि रचना होती है। वहाँ अपकर्षितद्रव्यमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर बहुभागप्रमाण द्रव्य गुणश्रेणिसे उपरितन स्थितियोंमें निक्षिप्त होता है। जो एकभाग शेष रहता है उसमें असंख्यातलोकप्रमाण समयोंका भाग देनेपर गुणश्रेणिआयाममें निक्षिप्त होता है। और शेष एकभाग उदयावलिमें निक्षिप्त होता है। इस प्रकार जबतक निक्षिप्त होता है तबतक उदयमें समयप्रबद्धका असंख्यात एकभागप्रमाणद्रव्यं ही पतित होता है। किन्तु अनिवृत्तिकरणका संख्यातवाँ भागकाल शेष रहनेपर सम्यक्त्व प्रकृतिके अपकृष्टद्रव्यमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर बहुभागप्रमाणद्रव्य उपरितन स्थितियोंमें निक्षिप्त होता है। अवशिष्ट रहे एकभागमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर बहुभागप्रमाणद्रव्य गुणश्रेणि-आयाममें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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