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________________ १३८ लब्धिसार काण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है, इसलिए पूर्वोक्तपदसे यह पद संख्यातगुणा सिद्ध हुआ ॥ २८ ॥ उससे अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें प्रविष्ट हुए जीवके दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है । कारण कि वहाँपर दर्शनमोहनीयकी स्थिति सौ सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण पाई जाती है, इसलिए पूर्वपदसे यह पद संख्यातगुणा हो जाता है ।। २९ ॥ उससे दर्शनमोहनीयको छोड़कर शेष कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है, क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें जो उक्त कर्मोंका स्थितिबन्ध होता है वह अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण होता है जो पूर्वोक्तपदसे संख्यातगुणा होता है, इसलिए पूर्व पदसे यह पद संख्यातगुणा कहा गया है ॥ ३० ॥ उससे उन्हीं कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है, क्योंकि इसमें अपूर्वकरणके प्रथम समयमें होनेवाला स्थितिबन्ध ग्रहण किया गया है, इसलिए पूर्वपदसे यह पद संख्यातगुणा है यह स्वाभाविक ही है ।। ३१ ॥ उससे दर्शनमोहनीयको छोड़कर शेष कर्मोंका जघन्य स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है, क्योंकि चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके सिवाय अन्यत्र सम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे भी जघन्य स्थितिसत्त्व इसी प्रकार प्राप्त होता है यह नियम है, इसलिए पूर्वपदसे इस पदको संख्यातगुण कहा है ॥ ३२ ॥ उससे उन्हीं कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा 1. क्योंकि अपर्वकरणके प्रथम समयमें उक्त कर्मों का उत्कष्ट स्थितिसत्त्व अन्तःकोडाकोडीप्रमाण पाये जानेका नियम इसलिए है कि अभी उसका घात नहीं हुआ है, इसीलिए पूर्वोक्त पदसे इस पदको संख्यातगुणा कहा है ॥ ३३ ॥ यह उक्त तेतीस पदोंका अल्पबहुत्व है। सत्तण्हं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । मेरु व णिप्पकंपं सुणिम्मलं अक्खयमणंतं ।। १६४ ॥ सप्तानां प्रकृतीनां क्षयात् क्षायिकं तु भवति सम्यक्त्वम् । मेरुरिव निष्प्रकंपं सुनिर्मलमक्षयमनंतम् ॥ १६४ ॥ दसणमोहे खविदे सिज्झदि तत्थेव तदियतुरियभवे । णादिक्कदि तुरियभवे ण विणस्सदि सेससम्मेव ।। १६५ ।। दर्शनमोहे क्षपिते सिद्धयति तत्रैव तृतीयतुर्यभवे । नातिकामति तुर्यभवं न विनश्यति शेषसम्यगिव ।। १६५ ॥ सत्तण्हं पयडीणं खयादु अवरं तु खइयलद्धी दु । उक्कस्सखइयलद्धी घाइचउक्कखएण हवे ।। १६६ ।। सप्तानां प्रकृतीनां क्षयादवरा तु क्षायिकलब्धिस्तु। उत्कृष्टक्षायिकलब्धि_तिचतुष्कक्षयेण भवेत् ॥ १६६ ॥ 'उवणेउ मंगलं वो भवियजणा जिणवरस्स कमकमलजुयं । जसकुलिसकलससत्थियससंकसंखंकुसादिलक्खणभरियं ।। १६७ ॥ १. रायचन्द्रजैनशास्त्रमालीयमुद्रितपुस्तके तथा सम्यग्ज्ञानचन्द्रिकायां च टीकायां सम्मे असंखवस्सिय इत्यादिषट्पञ्चाशदधिकशततमा ‘उवणेउ मंगल वो' इत्यादि सप्तषष्टयधिकशततमा च गाथा नोपलब्धे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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