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________________ [ २ ] अपकषिते अपकषिते अपकर्षण अपकर्षण x x अतिस्थापन x x २८४ उक्कट्ठिद ओकड्डिद,, अपकर्षित अपकर्षित४०१ उव्वट्टणा ओवट्टणा अतिस्थापना अतिस्थापना सूचना-यहाँ पाठ अइवणा होना चाहिये। ४०३ उक्कट्ठदि ओक्कडदि , उत्कृष्यन्ते अपकृष्यन्ते ४३७ आवेत्त आजुत्त,, आवृत्त आयुक्त ४६२ ओवट्टणिउट्टण ओवट्टणुवट्टण ,, अपवर्तनोद्वर्तनं अपवर्तनोद्वर्तनं उक्कट्टिदं ओक्कड्डिदं अपकर्षितं अपकर्षितं अपकर्षण x x आवृत्त अपवर्तनोद्वर्तन x x x x अपकर्षण किया (२) दर्शनमोहक्षपणा अधिकारके अन्तमें टिप्पणी में कहा गया है कि गाथा १५६ 'सम्म असंखवस्सिय' और गाथा १६७ 'उवणेउ मंगलं वो' इन दोनों गाथाओंकी संस्कृत वृत्ति और सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीकाका अर्थ नहीं किया गया है। किन्तु गाथा १५६ की संस्कृत वत्ति भी है और सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीकामें अर्थ भी किया गया है। मात्र १६७ गाथा पर वृत्ति और टीका दोनों नहीं है, अत: हिन्दीमें इस गाथाके अर्थकी पूर्ति कर दी गई है। (३) गाथा ४७५ के उत्तरार्धमें मध्यका कुछ भाग त्रुटित है। इस बातको ध्यानमें रखकर पण्डित श्री टोडरमलजीने उत्तरार्धका अर्थ न लिखकर यह टिप्पणी की है-'इस गाथा विषं लिखनेवालेने अक्षर केते इक न लिखे तातै आधा गाथाका अर्थ न जानि इहाँ नाहीं लिख्या है।' अतः हमने जयधवलासे प्रकरण देखकर उक्त अंशकी पूर्ति करके 'विशेष' में पूरे गाथाके अर्थका स्पष्टीकरण कर दिया है। पूर्वकी प्रतिमें उक्त गाथा इस प्रकार है विदियादिसु समयेसू वि पढमं व अपुव्वफड्ढयाण विही। णवरि य संखगुणूणं..."पडिसमयं । यहाँ त्रुटित पाठ 'णिवत्तयदि' होना चाहिये ऐसा प्रकरणके अनुसार जयधवलासे समझ कर उक्त पाठकी पूर्ति कर दी है और जयधवलाके पुरे उद्धरणको टिप्पणमें दे दिया है। अपनी प्रस्तावनामें मैंने आवश्यक विषयोंपर ही प्रकाश डाला है। इतिहास लिखना मेरा प्रयोजन नहीं था, इसलिये समयादि सम्बन्धी कुछ विषयोंको मैंने गौण कर दिया है। इतिहास अनुसन्धानका विषय है और अभी तक इसपर जो कुछ भी लिखा गया उसमेंसे कुछ मुख्य विषय अभी भी विवादके विषय बने हए हैं। फिर भी जिन तथ्योंको आवश्यक समझा उन्हींपर मैंने विशेष प्रकाश डाला है। अस्तु, इस ग्रन्थके सम्पादनमें मेरे सामने अनेक कठिनाइयाँ रही हैं, फिर भी किसी प्रकार इसे सम्पन्न करने में मैं सफल हुआ इसकी मुझे प्रसन्नता है। यह श्री पं० बाबूलालजी गोयलीय अगास और श्री बाबूलालजी फागुल्लकी निष्ठाका परिणाम है कि यह कार्य सम्पन्न हो गया। प्रूफ जैसे कष्टसाध्य कार्यको मुझे ही सम्पन्न करना पड़ा है, इसलिये अशुद्धियाँ रहना सम्भव है सो स्वाध्यायप्रेमी बन्धु उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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