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________________ लब्धिसार विशेष--श्री जयधवला भाग १२, पृ० ३२१ में मात्र वेदकसम्यग्दृष्टीका ग्रहण न कर सामान्य सम्यग्दृष्टी पद आया है । उसके अनुसार चाहे वेदकसम्यग्दृष्टि हो या उपशमसम्यग्दृष्टि, यदि नियोग वह अन्यथा श्रद्धा करता है और सूत्र से सम्यक् अर्थके बतलानेपर भी वह हठाग्रही बना रहता है तो संक्लेशविशेषके बढ़ जानेके कारण वह उस समयसे मिथ्यादृष्टि हो जाता है । यहां किसका कितना काल है इस दृष्टिसे विचार नहीं किया है। किन्तु उक्त दोनों सम्यक्त्वों में यह संभव है इस दृष्टि से वहां सामान्य सम्यग्दृष्टि पदका प्रयोग जान पड़ता है । अथ मिश्रप्रकृत्युदयकार्यं व्याचष्टे - ८६ दिये सम्मिस्सं दहिगुडमिस्सं व तच्चमियरेण । सहदि एक्समये मरणे मिच्छो व अयदो वा ।। १०७ ।। मिश्रोदये संमिश्र दधिगुडमिश्र वा तत्त्वमितरेण । श्रद्दधात्येकसमये मरणे मिथ्यो वा असंयतो वा ॥ १०७॥ सं० टी० - मिश्रस्य सम्यग्मिथ्वात्वप्रकृतेरुदये सति जीवस्तत्त्वमितरेणातत्त्वेन संमिश्रमेकस्मिन् समये पूर्वगृहीतमिथ्या देवतादिश्रद्धानमत्यजन् अर्हन् देवतेत्यपि श्रद्दधाति । मिश्रं परस्परप्रदेशानुप्रविष्टं दधिगुडं यथा रसांतर परिणामं लोके दृश्यते तथा मरणे सोंऽतर्मुहूर्तमात्रे अवशिष्टे मिथ्यादृष्टिव भवत्य संयत सम्यग्दृष्टिर्वा भवति ।। १०७ ॥ अब मिश्रप्रकृतिके उदयके कार्यकी प्ररूपणा करते हैं स० चं०—मिश्र जो सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति ताका उदय होतें जीव मिश्र गुणस्थानवर्त्ती होइ सो एक समयविषै तत्व अर इतर अतत्व इनिकौं मिश्ररूप श्रद्द है है । जैसें दही गुड मिल्या हूवा और ही रसांतरकौं प्राप्त हो है तैसें इहां सत्य असत्य श्रद्धान मिल्या हूवा जानना । इहां मरण होनेतें अंतर्मुहूर्त पहिले ही नियमतें मिथ्यादृष्टी वा असंयत हो है । मिश्र विषै मरण नाहीं है ||१०७ || अथ मिथ्यात्वप्रकृत्युदयकार्यं प्ररूपयति Jain Education International मिच्छत्तं वेदतो जीवो विवरीयदंसणं होदि । णय धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जुरिदो ॥ १०८ ॥ मिथ्यात्वं वेदयन् जीवो विपरीतदर्शनो भवति । न च धर्मं रोचते हि मधुरं खलु रसं यथा ज्वरतः ॥ १०८ ॥ सं० टो० - मिथ्यात्वप्रकृतेरुदयमनुभवन् जीवो विपरीत दर्शनः अतत्त्वश्रद्धानो मिध्यादृष्टिर्भवति । स च धर्म वस्तुस्वभावमनेकांतं दयामूलं वा रत्नत्रयात्मकं मोक्षमार्गं न रोचते नेच्छति । अस्मिन्नर्थे उपमानमाहयथा ज्वरितः पित्तज्वराक्रांतो मधुररसं स्फुटं न रोचते ॥ १०८ ॥ अब मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयका कार्य कहते हैं स० चं० – मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयकौं जीव अनुभवता मिथ्यादृष्टी होइ सो विपरीत श्रद्धानी होइ । जैसैं ज्वरवालेकौं मोठा न रुचै तैसें ताकी धर्म जो अनेकांत वस्तुका स्वभाव वा रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग सो रुचै नाहीं असें जानना || १०८|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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